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चक्रवदाशुवृत्या क्रमेणव तत्सुखमिति नोपपत्तियुक्त । परापरान्तकरणसंबंधस्य तत्कारणस्य परिकल्पनायां व्यवधानप्रसंगात् । यदि परापरांतःकरणयोगो न स्वीक्रियेत तहि सुखस्य मानसप्रत्यक्षत्वं न स्यात् । viivन च स्वदेहप्रमितिरात्मा इत्यत्रापि प्रमाणाभावात् सर्वत्र सशय इति वाच्यं । तत्साधकस्यानुमानस्य सद्भावात् । तथाहि देवदत्तात्मा तद्देह एव तत्र सर्वत्रैव च विद्यते, तत्रैव तत्र सर्वत्रैव च स्वासाधारणगुणाधारतयोपलंभात्. । यो यत्रैव यत्र स्वासाधारणगुणाधारतयोपलभ्यते, स तत्रैव तत्र सर्वत्रैव च मात्र स्वीकार करने पर सारे शरीर में रोमाञ्च आदि कार्य की उत्पति का प्रभाव हो जायगा । कुम्हार के चाक की तरह शीघ्र घूमने से कम से ही सुख होता है-यह भी ठीक नहीं। क्योंकि सुख के कारणभूत अन्तःकरण के नये नये सम्बन्ध की कल्पना करने पर अन्तराल में सुख के विच्छेद का प्रसंग आता है। और यदि परापरांतःकरण योग स्वीकार न किया जाय तो सुख के मानस प्रत्यक्षता नही ठहरती है । अत. आत्मा वटकरिणका मात्र है-यह मान्यता भी ठीक नही है।
मात्मा स्वदेह प्रमाण है-इस सम्बन्ध मे भी प्रमाण नहीं मिलेता। अत: आत्मा के आकार के बारे में सब मान्यताएँ सदेहपूर्ण हैं-ऐसा नही कहना चाहिए। आत्मा को स्वदेह प्रमाण सिद्ध करने वाला अनुमान प्रमाण का अस्तित्व है। जैसे देवदत्त की आत्मा उसके शरीर में ही और उसके सर्व प्रदेशों में ही मौजूद है। क्योंकि उसके सारे शरीर मे एवं सारे प्रदेशों में ही अपने असाधारण गुणो-ज्ञान दर्शनादि के साथ प्राप्त होने से, जो जिम वस्तु में जहा अपने असाधारण गुणों के साथ मिलता है, वह उस वस्तु मे वहां वहां सब जगह ही