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________________ ( ६ ) भावः पापं पुण्यं च समुपायं शोभनाशोभनशरीर लभते । यादृशमणुमहद्वा शरीरं विन्दति तावत्प्रमाणः प्रदेशसंहारविसर्पवत्वात् प्रदीपवत् संकोचविकासशाली भवति । पिपीलिकाशरीरस्थ एवात्मा यदा हस्तिशरीरमाप्नोति तदा तत्प्रमारणो भवति । तथा च नात्मा व्यापकः । as मनु प्रात्मा व्यापको द्रव्यत्वे सति अमूर्तत्वात्, इत्यनुमानात्तस्य व्यापकत्वं सिद्धयति इति चेन्न, अत्र यदि रूपादिलक्षणं मूर्तत्वं तत्प्रतिषेधोऽर्मूतत्वं, तदा मनसा व्यभिचारः, अथासर्वगतद्रव्यपरिमारण मूर्तत्वं, तत्प्रतिषेधस्तथा चेत्, परं प्रति साध्यतथा परिग्रह नामक अशुभ भावों से तथा इनसे विपरीत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप शुभ भावों से पाप और पुण्य उत्पन्न करके सुन्दर और कुरूप शरीर धारण करता है। जिस प्रकार का छोटा या बडा शरीर मिलता है उसी प्रमाण आत्मा संकुचित और विस्तृत हो जाता है, क्योंकि आत्म-प्रदेशों में फैलने और सिकुडने की शक्ति है, दीपक की तरह । पिपीलिका (ल) के शरीर मे स्थित प्रात्मा ही जब हाथी का शरीर प्राप्त करती है तब हाथी के प्रमाण हो जाती है। इस तरह आत्मा व्यापक नही है। - rostiaguiole शंकाः-प्रात्मौ व्यापक हैं, द्रव्ये होकर कि होने से। इस अनुमान से आत्मा के व्यापकपना सिद्ध होता है, ( उत्तर) यह ठीक नहीं है । यदि यहा मूर्तपने का लक्षण रूपादिमान माना जाय और उमका उलटा अमूर्त पना माना जाय तो मन से व्यभिचार नामक दोष पाता है क्योकि मन को द्रव्य मान करके भी अमूर्त माना है, परन्तु उसे व्यापक नही माना। यदि मूर्तपने का लक्षण असर्वगत द्रव्य परिमारणवाला और इससे विपरीत अमत्तं का लक्षण माना जाय तो हम जैनो के प्रति . -
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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