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। १६६ ) अस्यां कृतौ मेऽस्ति न किञ्चनापि,
यदस्ति किञ्चित्खलु तत् परेषां । मया कृतः केवलसंग्रहोत्रः .
पुरातमग्नथकृतां' कृतीनाम् । || इतिः ।।
ग्रन्थ के रचयिता जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् जयपुर निवासी श्रद्धेय पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ, अपनी लघुता प्रकट करते हुए कहते हैं कि इस ग्रन्थ के निर्माण में मेरा अपना कुछ भी नहीं है जो कुछ भी है वह सबन्दूसरों का है। प्राचीन ग्रन्थ निर्माताओं की कृतियों का मैंने यहां मात्र सार संग्रह किया है। मैं उन सब ग्रन्थकारों का महान् कृतज्ञ है।
|| इति।।