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________________ ( १६५ ) निक्षपस्तु ज्ञेयात्मकः । अत एतयोविपयविषयिभावसम्बन्धोंमस्त । निक्षपो.हि वाच्यवाचकसम्बन्धस्थापनायाः क्रिया। स नयस्य विषयो नयस्तु तस्य विपयी। आद्यास्त्रयो निपा द्रव्या. थिकनयविषयाः । अन्तिमश्च पर्यायाथिकनयगोचरः । बालाद्यवस्थाभिन्न ऽपि मनष्ये नाम्नोऽविच्छेददर्शनादन्वयित्वं दृश्यते इति नामनिक्षेपो द्रव्याथिकविषयः । तथैव तीर्थकरप्रतिमादी कालभेदेऽपि स्थापनाया: दर्शनादन्वयित्वमिति स्थापनानिक्षेप. स्याऽपि द्रव्याथिकविषयत्वं युक्तिसंगतम् । भावनिक्षेपे तु नैतादृशमन्वयित्वं दृश्यत इति तस्य पर्यायाथिकप्रमेयत्वं संगतमेवेति । जैनदर्शनसारेऽस्मिन प्रमाणनयलक्षण निक्षेपाः वरिणताः सम्यक समासात्तत्त्वसप्तकम् । : ज्ञेयात्मक-इसलिए दोनों में विषय विषयी भाव सम्बन्ध है। वाच्य वाचक सम्बन्ध स्थापना की जो क्रिया है वह निक्षेप होता है-वह नय का विषय है और नय उसका विषयी। पहले के तीन निक्षेप द्रव्याथिक नय के विषय हैं और चौथा पर्यायाशिक नय का विषय है । मनुष्य पर्याय में बचपन जवानी वगैरह अवस्थाओं के भिन्न होने पर भी नाम का विच्छेद न होने से अन्वयीपना है इसलिए नाम निक्षेप द्रव्याथिक नय का विषय है। इसी प्रकार तीर्थंकर की प्रतिमा वगैरह में काल की भिन्नता होने पर भी स्थापना में: अन्तर नहीं पड़ने से पवयीपना है अतः स्थापना निक्षेप का भी द्रव्याथिक नय का विषय होना तर्क संगत है ही। भाव निक्षेप में तो ऐसा अन्वसीपना संभव नहीं होता इसलिए उसका पर्यायार्थिक नय का विषय होना सिद्ध ही है। इस जनदर्शनसार ग्रन्थ मे प्रमाण, नय, लक्षण, निक्षेप तथा सात तत्त्वो का संक्षेप में सम्यक निरूपण किया गया है।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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