SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने जातिमात्रतो धर्मो लभ्यते देहधारिभिः । सत्यशोचतप. शील-ध्यानस्वाध्यायवजितः ।।१।। प्राचारमात्रभेदेन बात्तीना भेदकल्पनम् । न जाति ह्मरणीयाऽस्ति नियता नवापि तात्त्विकी ॥२॥ ब्राह्मणक्षत्रियादीनां-चतुरामपि तत्त्वतः । एकव मानुषो जाति-राचारेण विभज्यते ।।३।। . सयमो नियमः शीलें तपो दानं दमरे दया। . . विद्यन्ते तात्त्विका यस्यां सा जातिमहती सताम् ॥४॥ गुणैः सम्पद्यते जाति-गुणध्वंसैविपद्यते । यतस्ततो बुधैः कार्यो गुणेष्वेवादरः परः ॥५॥ प्राणियो के जीवन में अगर सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान, स्वाध्याय आदि गुण न हो तो वे'मात्र जाति के उच्च होने से धर्म को प्राप्त नहीं कर सकते ।।१।। शुभ और अशुभ आचरण के भेद से ही जाति भेद की कल्पना हुई है । बाह्मणादि जाति कोई वास्तविक, निश्चित अमिट या अनादि नहीं है ।।२।। वास्तव में ब्राह्मण क्षत्रिय वगैरह चारों ही की एक ही मनुष्य जाति है और वह ही आचार-व्यवहार के द्वारा चार भागों में विभाजित हो जाती है ।।३।। जिस जाति मे संयम, नियम, शील, तप, दान, यम, दया ग्रादिगण यथार्थ रूप में पाये जाय वही जाति बड़ी है ॥४॥ गणों के होने से ही उच्च जाति होती है, गुणों के नष्ट दी जाति का नाश हो जाता है। इसलिये बुद्धिमानो को चाहिए कि पुरणों को प्राप्त करने में ही परम करें ॥५॥
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy