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________________ उत्तराध्ययने चोक्तं - कम्मुरणा वंभरणो होइ, कम्मुरणा होइ खत्तिौ । वइसो कम्मुरगा होइ, सुद्दो होइ कम्मुरणा 1 वरांगचरिते च ( १५० j क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्राद्दयाभिरक्षाकृषिशिल्प भेदात् । शिष्टारच वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथावर्णचतुष्टयं स्यात् । न च जातिमात्रतः कदाचिद् धर्मो लभ्यते । नीचत्वोच्चत्वप्रयोजकत्वं तु गुणाभावगुणयोरेव । तथा चोक्तममितगतिनाssवार्येण - L उत्तराध्ययन में भी कहा है- प्रारणी कार्य से ब्राह्मण होता है, कार्य से ही क्षत्रिय होता है, कार्य से ही वैश्य तथा कार्य से ही शुद्र होता है । वरांग चरित में भी कहा है- उत्तम लोग क्रिया विशेष के प्राचरण मात्र से ही चार वर्ण की व्यवस्था करते है अर्थात् ब्राह्मण वर्गा का मुख्य धर्म दया, क्षत्रिय वर्ण का मुख्य कर्म अभिरक्षा, वैश्य वर्ण का मुख्य कर्म कृषि और शूद्र वर्ण का मुख्य कर्म शिल्प है । और किसी प्रकार वर्ण चतुष्टय की व्यवस्था नही है । - जाति मात्र से कभी धर्म की उपलब्धि नहीं होती । जिसमें गुणों का प्रभाव है वह उच्च होने पर भी नीच है और जिसमें गुरणों का निवास है वह नीच होकर भी उच्च है । प्रमितगति आचार्य ने भी इसी प्रकार निरूपण किया है
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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