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{ १४६ ) मनुष्यजातिरेकैव-जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिमेदाहिताद् भेदात्-चातुविध्यमिहाश्नुते ॥ बाह्मणा व्रतसंस्कारात्, क्षत्रिया शस्त्रधारणात् । वरिणजोऽर्थार्जनान्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥ जातिरेपा गुण सम्पद्यते, गुणध्वंसश्च विपद्यते । जातिहि गुणेन कर्मणा वा भवति न तु जन्मना । तथा चोक्त पद्मचरिते
ब्राह्मण्यं गुरणयोगेन न त तदयोनिसंभवाद । चातुर्वर्ण्य तथाऽन्यच्च चाण्डालादिविशेषणम् । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धि भुवने गतम् ।
व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मरणं विदुः ॥ कहा है "मनुष्य जाति नाम कर्म के उदय से पैदा हुई मनुष्य जाति एक ही है । आचरण भिन्नता रूप कारण के द्वारा ही वह संसार में चार प्रकार की हो गई है । व्रतों के संस्कार वाले ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने वाले क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धनोपा. र्जन करने वाले वैश्य और नीच वृत्ति (सेवा वृत्ति) आश्रय लेने वाले शूद्र कहलाये।
गरणो के द्वारा यह जाति उच्च बनती है और गुणो के नाश से नीच हो जाती है । निश्चय पूर्वक जाति गुरण से अथवा कर्म से होती है जन्म से नहीं। ऐसा ही पद्मचरित मे कहा है
ब्राह्मण व्रत सस्कार वगैरह गुरणों के सम्बन्ध से है न कि ब्राह्मण कुल मे जन्म लेने से। चार प्रकार की वर्णव्यवस्था तपा और भी जो चाडाल वगेरह विशेषण हैं वे सब के सब संसार में प्राचार की भिन्नता से ही प्रसिद्ध हुये हैं। क्योंकि जो चांडाल प्रतो का पालन करता है उसे देव, ब्राह्मण नाम से पुकारते हैं।