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________________ ' ( १३६ ) तोऽपि केचिद् प्रतिपादयन्ति यद् धर्माद्यर्थ हिंसायां न कश्चिद् दोषो विद्यते। ____ अपरे कथयन्ति-धर्मो हि देवताभ्यः समुत्पद्यते, अतो देवतार्थ विहिता हिंसा न पापाय । अन्ये च केचिद् व्याहरन्ति-पूज्यनिमित्तं कृतोऽजादीनां घातो न दोषाय, अतोऽतिथ्यर्थं सत्त्वसंज्ञपनमवश्यमेव विधेयम् । अपरे च जल्पन्ति-बहुसत्त्वघातसमुत्पन्नादाहारादेकसत्त्वा धातोत्थ भोजनं वरमिति महासत्त्वस्यकस्य हिंसनं युक्तिसङ्गतम् । - केचिच्च मन्यन्ते-एकस्यैव हिंस्रजीवस्य विनाशेन वहनां रक्षा भवति, अतो हिंसजीवानां हिंसनमवश्यमेव कर्तव्यमिति, 4 ऐसा जानते हुए भी कई लोग कहते है कि धर्म वगैरह के लिए की गई हिंसा में कोई पाप नही लगता। दसरे कहते हैं कि धर्म निश्चय से देवों से उत्पन्न होता है। इसलिए देवता के निमित्त की गई हिंसा से पाप नहीं होता। दूसरे कई कहते है कि पूज्य पुरुषों के लिए बकरे वगैरह के मारने में कोई दोष नहीं; इसलिए अतिथि के लिए जीव हिसा अवश्य करनी चाहिए। . __और दूसरे मानते हैं कि बहुत से जीवो की हिंसा से पैदा हए भोजन से एक जीव की हिंसा से पैदा हुआ भोजन उत्तम है; इसलिए एक बड़े जीव का घात करना उचित है। और कई ऐसा मानते है कि एक ही हिंसफ जीव सिंह वर्गरह के मार देने से बहुत से जीदों की रक्षा होती है, अतः हिंसक जीवों की हिंसा करना परमावश्यक है । अथवा बहुत से जीवों
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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