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( १४० ) अथवा बहुजीवधातिनोऽमी हिंस्रा जीवन्तो गुरूपापं समुपार्जयन्ति तेषा बधोऽनुकम्पैव तदुपरीति वदन्ति । ___ केचित् - ये जीवा बहुदुःखिनः सन्ति तेषा वध एव तदुःखमुक्तिरिति, अथवा जीवानां सुखप्राप्तिदुर्लभेति सुखिनो हताः सुखावशेषात् मुखिन एव तिष्ठन्तीति समाचक्षते । ___ केचित्-समाधिस्थितस्य गुरोः सुधर्माभिलाषिणा शिष्येण शिरस. करीने स परंब्रह्मावाप्नोतीत्यवश्यमेव तच्छिरः कर्तनीयमित्यूहते।
केचित्-यथा घटविनाशे घटे स्थितश्चटक उड्डीय स्वाभिलषित देश गच्छति तथैव शरीरविनाशे तस्थित आत्मा ततो
घात करने वाले ये हिंसक जीव यदि जिदा रहेंगे तो महान पाप उपार्जन करेंगे । उनको मार देना, उन पर दया करना ही है। ऐसा कहते है।
कई ऐसा कहते हैं कि जो जीव अत्यन्त दुखी हैं-उनको मार देना ही उस दुःख से उनको मुक्ति दिलाना है। अथवा जीवों को सुख प्राप्त होना कठिन है अतः उन सुखी जीवों को सुख शेष रहते हुए मार दिया जाय तो भविष्य में भी वे सुखी होंगे।
कई ऐसा तर्क करते है कि श्रेष्ठ धर्म की प्राप्ति चाहने वाले शिष्य के द्वारा जब उसका गुरू ध्यान मे तल्लीन हो गुरू का माथा काट देने से वह गुरू परम ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, इसलिए अवश्य ही गुरू का मस्तक काट देना चाहिए। - कई थोडे से धन के प्यासे खारपटिक मतवाले कहते हैं कि 'जैसे घडे के फोड देने से घडे मे बन्द चिडिया उडकर अपने मन पसन्द स्थान को चली जाती है उसी प्रकार शरीर का नाश