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( १३८ ) जस्तु बहवो भवन्ति । कदाचिद् बहवो हिंसा विदधति, हिंसाफलभाक्त्वेक एव भवतीत्याधनेकानि वैचित्र्यारिण हिंसाविषये प्रपश्यता जनेन हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेनावबुध्यावश्यमेव हिंसा त्याज्या। तथा चोक्त:हिहिंसकहिंसातत्फलान्यालोच्य तत्त्वतः। हिंसां तथोझन यथा, प्रतिज्ञाभङ्गमाप्नुयात् ॥१॥ प्रमत्तो हिंसको, हिंस्या-द्रव्यभावस्वभावकाः। प्रारणास्तद्विच्छिदा हिंसा, तत्फलं पापसञ्चयः ॥२॥
मंत्रौषधिदेवतायज्ञातिथिभोजनाद्यर्थं कृताऽपि हिंसा हिंसैब तत्फलमपि तीव्रपापसञ्चय एव । तथापि हिंसा पापं विजानभोगने वाले अनेक होते है। कभी अनेक लोग हिंसा करते है पर हिसा का फल एक को प्राप्त होता है। इस तरह हिंसा के सम्बन्ध में अनेक विचित्रताओ को देखते हुए प्रारणी को हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा-फल को अच्छी तरह जानकर हिंसा का अवश्य ही त्याग कर देना चाहिए।
"हिस्य, हिसक, हिसा और हिसाफल इन चारों को अच्छी तरह समझ कर हिसा इस तरह त्याग दे जिससे की गई प्रतिज्ञा का भंग न हो।
प्रमादी जीव हिसक कहलाता है। द्रव्यप्राण और भावप्राण हिस्य है। प्राणों का वियोग करना हिंसा है और उससे पापों का संचय होना हिसाफल है।
मंत्र, दवा, देवता, यज्ञ.अतिथि. भोजन वगैरह के लिए की गई हिंसा भी हिंसा ही है और उसका फल भी पापों का तीव्र संचय ही है। किसी के लिए भी की गई हिंसा पाप ही है,