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________________ MAA - - Jun na . ( १३७ ) पिन हिंसा भवति, ततो भावहिसैव मुख्यतो हिंसा प्रोच्यते । रागाद्यावेशे सति तु जीवो म्रियतां मा वा म्रियतां, हिंसाऽव-' श्यमेव भवति । यदि कषायोऽस्ति निश्चितं हिंसा । आत्मनः सूक्ष्माऽपि हिंसा परवस्तुनिबंधना न भवति । अत एव कश्चन हिसामकृत्वाऽपि हिंसाफलभाग्भवति तादृशपरिणामसद्भावात् । अपरो हिंसा कृत्वाऽपि हिंसाफ़लभाजनं न स्यात्, कषायरूपपरिणामाभावात् । एकस्याऽल्पा हिंसा परिपाकेऽनल्पं फलं ददाति तीवकपायत्वात् । अन्यस्य महाहिंसाऽपि परिपाके स्वल्पफला भवति मन्दकषायत्वात् । सैव हिंसैकस्य तीवफलं दिशति अपरस्य च मन्दं । सहकारिणोपि मनुष्ययोरेकैव हिसा फलकाले वैचित्र्यमादधाति । कदाचिद्धिसामेक: करोति तस्याः फलभा इसलिए भावहिंसा को ही मुख्य रूप से हिंसा कहा जाता है। राग भाव के होने पर तो जीव मरे वा न मरे हिंसा अवश्य ही होती है। यदि कषाय हो तो हिंसा निश्चित है। पर पदार्थों के कारण प्रात्मा को जरासी भी हिंसा नही होती। इसीलिये कोई हिंसा न करके भी हिंसा के फल को भोगता है, क्योंकि उसके भाव हिंसा करने के हैं । दूसरा हिंसा करके भी हिंसा के फल का पात्र नही होता क्योकि उसके भाव कषाय रूप नही है। एक को थोडी सी हिंसा फल देते समय महान् फल देती है क्योंकि कषाय की तीव्रता है । दूमरे को महान हिंसा भी बहुत कम फल देती है, क्योकि कषाय की मन्दता है । वही हिंसा एक को तीव्र फल देती है और दूसरे को थोड़ा । दो मनुष्यों मारा एक साथ की गई हिंसा फल देते समय विचित्रता को प्राप्त होती है-अर्थात् एक को हिंसा का फल मिलता है-दूसरे को महिमा का। कभी कभी हिसा एक करता है और उसके फल
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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