SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अत एव कृषिकार्यनिवार्या हिंसां कुर्वतोऽपि कृपकाज्जलाशयतटे मत्स्यादीन् गृहीतु सन्निपण्णो धीवरो जाले मत्स्यागमनाभावात्तानननन्नपि उच्चैः पापः प्रोक्तो जैनागमे, कृतहिंसासंकल्पत्वात्तस्य । कृषकस्तु न तादृशः, स हि केवलं कृषिकार्यमेव करोति । न तु जीवहिंसासंकल्पस्तस्य, अत एव यथाशक्ति तत्रागतान् प्राणिनो रक्षत्यपि । तथा चोक्त प्रारंभेऽपि सदा हिंसां सुधीः सांकल्पिकी त्यजेत् । , नतोऽपि कर्षकादुच्चैः पापोऽघ्नन्नपि धीवरः ॥ तत. प्राणव्यपरोणं तदैव हिंसा भवति यदा तद्रागादिकषायप्रेरितं भवेत् । रागाद्यावेशाभावे तु प्रारणव्यपरोपणे सत्य इसीलिये जिनवाणी में खेती में अनिवार्य हिंसा करते हुए भी किसान से वह भील जो मरोवर के किनारे मछलियों को पकड़ने के लिए बैठा हुमा जाल में मछलियो के न फंसने से उन्हे नही मारता हुआ भी ज्यादा पापी कहा गया है। क्योकि उसका इरादा हिंसा करने का है। किसान तो वैसा नहीं हैवह तो मात्र खेती करता है-उसका जीव हिंसा का इरादा नही है, और यथाशक्ति खेती में आए हुए जीवों को बचाता भी है । जैसा कि कहा है विवेकी मनुष्य को चाहिए कि वह सदा किसी भी कार्य मे जान बूझकर हिमा न करे। जीवो की हिंसा करने वाले किसान से जीवों को नही मारता हुग्रा भी भील ज्यादा पापी है। इसलिये प्रारणों का घात तभी हिसा का कारण है जब वह रागादि कषायों के द्वारा सम्पन्न हो। रागपादि भावो, के विना तो प्राणो का घात हो जाने पर भी हिंसा नहीं होती।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy