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________________ प्रमत्तयोगहेतुकप्राणव्यपरोपणलक्षणा हिंसा । प्रमत्तयोगो हि कषायसम्बन्धः । प्राणश्च द्रव्यभावभेदेन द्विविधाः द्रव्यप्रारणा. पञ्चेन्द्रियारिण. मनोवाककायवलानि, श्वासोच्छ वासमायुश्चति दश । तत्रैकेन्द्रियस्य चत्वारो, द्वीन्द्रियस्य षट्, त्रीन्द्रियस्य सप्त, चतुरिन्द्रियस्याष्टी, निर्मनस्कपञ्चेन्द्रियस्य नव, समनस्कपञ्चेन्द्रियस्य दश द्रव्यप्राणा भवन्ति । भावप्राणास्तु चतन्यात्मकाः । एतेपा यथा संभवं व्यपरोपणकरणं हिंसा । प्राणव्यपरोण हि प्राणवियोगः। प्रमत्तयोगहेतुकत्वे सति प्राणवियोगत्वं हिंसायाः लक्षण । अन्यतराभावे हिंसाभावज्ञापनार्थमुभयमुपादीयते। प्रमत्तयोगाभावे केवलस्य प्राणवियोगस्य हिसात्वाभावात् । दुर्भावना से अपने तथा पर के प्राणों का घात करना हिंसा है। प्रमाद योग का अर्थ है कषायों का सम्बन्ध होनाभावो का मलिन होना। प्राण दो प्रकार के हैं-द्रव्यप्राण और भावप्रारण । द्रव्यप्राण दश हैं-पाच इन्द्रियां, मनवल, वचन-बल, काय-बल, आयु और श्वासोच्छ वास। इनमें से एकेन्द्रिय जीव के चार प्रारण, दो इन्द्रिय के छह, तीन इन्द्रिय के सात, चार इन्द्रिय के आठ, असैनी पचेन्द्रिय के नौ तथा सैनी पचेन्द्रिय के दश प्रारण होते है । भाव प्राण चैतन्य स्वरूप हैं। जिस जीव के जितने प्रारण सभव है उनका घात करना हिंसा है। प्राण-व्यपरोपण का अर्थ निश्चय से प्रारणो का घात करना है। प्रमाद के सम्बन्ध रूप कारण के होने पर प्रायो का बिछड़ना हिंसा का लक्षण है। दोनो में से एक के न होने पर हिंसा नहीं होती यह बताने के लिए दोनों का ग्रहण किया जाता है। दुर्भावना न हो-केवल प्राणो का वियोग हो वहां हिंसा नहीं होती।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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