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________________ ननु नैतत् समीचीनं, प्रारणव्यपरोपणाऽभावेऽपि प्रमत्तयोगमात्रादेव तत्र हिंसाया. प्रोक्तत्वात् । नैप दोपस्तत्रापि भावलक्षणस्य प्राणव्यपरोपणस्य सद्भा. वात् । सकपायो ह्यात्मा पूर्व स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्ति । पश्चादन्येषां वधो भवेद् मा वा भवत् । ननु जले स्थले चाकाशे जन्तुसद्भावादयं लोक' सर्वत्र जन्तुमालाकुल । तत्र चरन् साधुः कथमहिंसक. स्यात् । सर्वत्र जीवव्यपरोपणसंभवादिति चेन्न-पात्मत्वपरायणस्य साधोः कषाययोगाभावादहिसकत्वमेव । किञ्च द्विविधाःप्राणिनः, सूक्ष्माः स्थूलाश्च । ये सूक्ष्मास्ते शकाकार का कहना है कि यह कहना ठीक नहीं। प्रारणों का घात हुए बिना भी मात्र दुर्विचारों से भी हिंसा कहीं जाती है। यह दोष नहीं है। वहा भी भावरूप प्रारणों का वियोग होता है। निश्चय से जव आत्मा कषाय सहित होता है प्रथम वह अपने ही द्वारा अपने आपका घात करता है फिर दूसरों का मरण हो या न हो। - शंकाकार शका करता है कि जल मे, पृथ्वी पर तथा आकाश मे जीव मौजूद होने से यह लोक सब जगह जीवों के समूह से भरपूर है। उनमें होकर चलने वाला साधु सब जगह जीवों का घात होने से अहिसक कैसे हो सकता है ? ऐसा कहना ठीक नही, प्रात्म-निष्ठ साधु के प्रमाद का सद्भाव न होने से अहिंसकपना ही है । दूसरी बात यह है कि स्थूल और सूक्ष्म दो तरह के जाव होते हैं । जो सूक्ष्म है उन्हे बचाया नहीं जा सकता, क्योंकि
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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