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________________ ( १३२ ) मीमांसका अपि प्रमातृप्रमितिप्रमेयाकारमेकं ज्ञानं घटमहं जानामीत्यनुभवात् स्वीकुर्वन्तीत्येवं रीत्या मतान्तरेष्वनेकान्तप्रक्रियाऽनुभवसिद्धा वतत एवेति सर्वत्रानेकान्तशासनं जयति । अहिंसातत्त्वम् स्याद्वादनिरूपणानन्तरमधुना जैनाचारस्याधारभूताया: अहिसायाः विवेचनं क्रियते। हिंसाया अभावरूपाह्यहिंसा अतो हिसास्वरूपज्ञानमन्तरेणाहिमायाः ज्ञान न स्यात् । भावज्ञान विनाऽभावज्ञानसंभवादिति तावद् हिसायाः स्वरूपं कथयितु मुपक्रमे। मीमांसक मत वाले भी 'मैं घट को जानता हूँ इस अनुभव के कारण एक ही ज्ञान को प्रमाता, प्रमिति एव प्रमेय रूप स्वीकार करते हैं। इस तरह अन्य मतों में भी अनेकान्त प्रक्रिया अनुभव सिद्ध है ही। ___ इस प्रकार अनेकान्त सिद्धान्त सर्वत्र व्यापक है और निर्दोष अहिंसा तत्व स्याद्वाद का वर्णन करने के बाद अब जैनाचार का प्रारण अहिंसा का कथन किया जाता है। हिसा का अभाव अहिंसा है। इसलिये हिंसा के स्वरूप का ज्ञान हएं विना महिंसा का ज्ञान नहीं हो सकता। भाव का ज्ञान हुए विना प्रभाव का ज्ञान नही होता, इसलिए सर्व प्रथम हिंसा का लक्षण कहा जाता है।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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