________________
( १३१ ) वाद्विशेषः । तथैकमेव द्रव्यत्वं जातिः सत्तापेक्षयाऽपग, पृथिखाद्यपेक्षया च 'परा, इत्येक्रस्य परापरात्मकत्वमभ्युपगतम् ।। एव च सामान्यविशेषात्मकत्वमेकस्य स्वीकृतम् । तथैव गुणत्व कर्मत्व सामान्यविशेष इति ।
सौगता अपि मेचकज्ञानमेकमनेकाकारं प्रतिपादयन्ति । पंचवर्णात्मक रत्न मेचकं । तज्ज्ञान नैकप्रतिभासात्मकमेव चित्रज्ञानत्वविरोधात् । नीलपीतादिनानाकारज्ञानं हि चित्रज्ञान न त्वकाकारमेव, नापि मेचकज्ञानमनेकमेव मेचकज्ञानमिदमित्यनुभवविरोधात् । इमानि मेचकज्ञानानीत्यनुभवप्रसंगाच्च ।। ततश्चैकानेकात्मक चित्रज्ञानं सौगतादीनामभीष्टमेव ।
-
ही द्रव्यत्व जाति सत्ता की अपेक्षा अपर है और पृथिवी वगैरह की अपेक्षा से पर है, इस प्रकार एक ही जाति को पर और अपर रूप स्वीकार किया है । इस तरह यौगो ने एक पदार्थ को सामान्य विशेष रूप माना है ऐसे ही गुंगत्व तथा कर्मत्व भी सामान्य विशेष रूप है-यह समझ लेना चाहिए। '
बौद्ध मतावलम्बी भी मेचक मरिण के ज्ञान को एक और भनेक रूप स्वीकार करते हैं । पंच रंग वाले रत्न को मेचक कहते है। उस मरिण का ज्ञान एक प्रतिभास स्वरूप माना नही जा सकता; क्योकि चित्र ज्ञानत्व का विरोध है-नीला पोला वगैरह अनेक प्रकार का ज्ञान ही चित्रज्ञान है-न कि एक प्राकार का ज्ञान । मेचक ज्ञान को अनेक पदार्थ विपयक भी नहीं कर सकते क्योकि यह मेचक ज्ञान है-इस अनुभव के विरोध का
पस्थित होगा-और ये मेचक ज्ञान है ऐसे वहवचन के - अनभव का प्रसंग होगा । इसलिए चित्रज्ञान को बाहर तथा अनेक स्वरूप माना ही है।