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( १३० ) कण्ठतस्तरस्या विरोधः कृतः कित्वेकानेकात्मकतत्त्वस्वीकारादस्याः सर्वत्रानुसरणं तैरपि कृतम् । तथाहिः
सांख्यास्तावत् सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिरिति कथयन्ति । तेषां मते प्रसादलाघवशोपतापवारणासादनादिभिन्नस्वभावानामनेकाद-मनामेकप्रधानात्मकत्वस्वीकारेरणकानेकात्मकवस्तुनः स्वीकारात् । समुदायसमुदायिनोरभेदात् समुदायिना गुरणानामने केषा समुदायस्य चेकस्याभेदाभ्युपगमात् ।,
योगास्तु (नैयायिकवैशेषिको ) द्रव्यत्वादिकं सामान्यविशेषात्मकमङ्गीकुर्वन्ति । द्रव्य द्रव्यमित्यनुगतबुद्धिविषयत्वात् सामान्यं, गुणो न द्रव्य, कर्म न द्रव्यमिति व्यावृत्तिबुद्धिविषय
ही है । यद्यपि उन्होने मौखिक रूप से इसका विरोध किया है किन्तु वस्तु को एक-अनेक स्वरूप स्वीकार करने से इस अनेकान्त का सब जगह उन्होने अनुसरण किया ही है। जैसे कि-सांख्य, सरव-रज-तमो गुरण की समान अवस्था को प्रकृति कहते है। उनके मतानुसार प्रसाद लाघव शोष ताप वारण वगैरह भिन्न भिन्न स्वभाव वाले अनेक धर्म वाले पदार्थो को एक प्रधान रूप मानने से ही पदार्थ एक अनेक स्वरूप स्वीकार कर लिया गया। समुदाय और समदायी में अभेद होने से समुदायी के अनेक अवयव गुणों का तथा एक समुदाय का अभेद उनके द्वारा मान्य हो है ।
नैयायिक वैशेषिक भी द्रव्य ग्रादि पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक मानते ही है । पृथिवी अल वगैरह में यह द्रव्य है अर्थात् पृथिवी द्रव्य है, जल द्रव्य है, वायु द्रव्य है इस तरह अनेक पदार्थो में एक प्रकार की बुद्धि होने से द्रव्यत्व सामान्य रूप है। तथा गुण द्रव्य नहीं है, कर्म द्रव्य नहीं है इस प्रकार अन्य पदार्थों से एक को भिन्न करने से विशेष रूप भी है। इसी प्रकार एक