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( १२५ ) अनेकान्तवादे तु तादृशलक्षणस्य प्रसंग एघ नास्ति। ।
अथ सशयहेतुरनेकान्तवादः, एकस्मिन् वस्तुनि विरुद्धानामस्तित्वनास्तित्वादिधर्माणामसंभवात् । यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वत्याकारक ज्ञान सशय , एकमिविशेष्यकस्थारणत्वतदभावप्रकारकज्ञानत्वात् तथैवाऽयमपि, इति चेन्न-विशेषलक्षणोपलव्धे । संशयो हि सामान्य प्रत्यक्षाद् विशेषाप्रत्यक्षाद् विशेषस्मृतेश्च जायते । अनेकान्तवादे तु विशेषोपलब्धिरप्रतिहता एव! स्वरूपपररूपादिविशेषाणा प्रत्यर्थमुपलंभात् । तस्माद् विशेषोपलव्धेरनेकान्तवादो न संशयकारणमिति ।
क्योकि यहा अन्य अभिप्राय से प्रयुक्त शब्द की अन्य अर्थ मे कल्पना का अभाव है।
अब अगर कोई यह कहे कि अनेकान्तवाद तो संशय का कारण है; क्योकि एक ही वस्तु मे अस्तित्व तथा नास्तित्व परस्पर विरोधी धर्म संभव नहीं हैं । जैसे यहळूठ है या पुरुष इस प्रकार के ज्ञान को सशय कहते हैं, क्योकि एक ही पदार्थ में स्थाणत्व तथा पुरुषत्व दो कोटियों को स्पर्श किया गया है। इसी तरह परस्पर विरोधी अस्तित्व नास्तित्व धर्मों का मनेकान्त में विवेचन है अत वह संशय का कारण है। ऐसा कहना भी युक्त नही; क्योंकि अनेकान्तवाद के विशेष लक्षण की उपलब्धि है । संशय तो सामान्य अंश के प्रत्यक्ष तथा विशेष अंश के अप्रत्यक्ष और विशेष की स्मृति होने से होता है। अनेकान्तवाद मे तो विशेष अंश की उपलब्धि अक्षुण्ण ही है, क्योकि स्वरूप पररूप विशेषों की उपलब्धि. प्रत्येक पदार्थ मे है। अतः विशेप की उपलब्धि से अनेकान्तवाद संशय का कारण नहीं है।