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( १२६ ) नन-अनेकान्तवादे विरोधादयोऽष्टौ दोपा: सभवन्ति । तथाहि-एकात्रार्थे विधिप्रतिषेधरूपयोरस्तित्वधर्मयोन सभव । भावाभावयो परस्पर विरोधादिति विरोधदोषः। अस्तित्वस्याधिकरणमन्यन्नास्तित्वस्याधिकरणमन्यदित्यस्तित्वनास्तित्व योर्वैयधिकरण्यम्-तस्य विभिन्नाधिकरणवत्तित्वादिति द्वितीयो दोष । येन रूपेणास्तित्व येन च रूपेण नास्तित्व ताशरूपयोरपि प्रत्येकमस्तित्वनास्तित्वात्मकत्व वक्तव्य, तच्च स्वरूपपररूपाभ्या, तयोरपि प्रत्येकमस्तित्वनास्तित्वात्मकत्व स्वरूप: पररूपाभ्यामित्यनवस्था। अप्रामाणिकानन्तपदार्थपरिकल्पनाविश्रान्त्यभावोऽनवस्थेति प्रोच्यते । येन रूपेण सत्वं तेन रूपेणासत्त्वस्यापि प्रसङ्गः । येन रूपेरण चासत्त्व तेन रूपेण सत्त्व
शका-अनेकान्तवाद मे तो विरोध आदि आठ दोषों की सभावना है फिर उस अनेकान्तवाद को श्रेष्ठ कैसे माना जाय ? जैसे कि एक पदार्थ मे विधि-प्रतिषेध-रूप अस्तित्व तथा नास्तित्व रूप धर्म संभव नहीं हो सकते, क्योंकि भाव और अभाव का परस्पर विरोध है। इस तरह अनेकान्त मे विरोध दोष आता है। अस्तित्व का अधिकरण अलग होता है तो नास्तित्व का अलग। इस तरीके से अस्तित्व और नास्तित्व की वत्ति भिन्न भिन्न अधिकरण में है। अतः अनेकान्त में वैयधिकरण दोष है क्योकि उसका लक्षण भिन्न भिन्न अधिकरण वृत्तिता रूप है। तथा जिस रूप से अस्तित्व है और जिस रूप से नास्तित्व है-उन दोनों रूपों को भी प्रत्येक को अस्तित्व तथा नास्तित्व रूप कहना चाहिये और वह अस्तित्व नास्तित्व स्वरूप एव पररूप से होता है। और उन स्वरूप तथा पररूप को भी प्रत्येक को अस्तित्व तथा नास्तित्व रूप स्वरूप तथा पररूप से होना चाहिए-इस प्रकार अनवस्था दोष का प्रसंग पाता है; क्योंकि असत्य पदार्थों की परम्परा से कल्पना करते