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' तत्र स्वरूपादिभिरस्तित्ववन्नास्तित्वमपि स्यादित्यनिष्टायेनिवृत्त्यर्थं स्यादस्त्येवेति एवकारः कर्तव्यः । तेन स्वरूपादिभिरस्तित्वमेव न नास्तित्वमित्यवधार्यते । स चैवकारस्त्रिविधः प्रयोगव्यवच्छेदबोधकः, अन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः, अत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकश्चेति । तत्र विशेषणसङ्गतंवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधको यथा शङ्खः पाण्डुर एव । विशेष्य सङ्गतं वकारोऽ न्ययोगव्यवछेदवोधको यथा पार्थं एव धनुर्धरः । क्रियासङ्गतैवकारोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधको यथा-नीलं सरोज भवत्येव । स्यादस्त्येव घट इत्यादौ यद्यपि क्रियासङ्गतैवकारस्तथापि नात्यन्तायोगव्यवच्छेदक अनिष्टापत्तेः । कस्मिंश्चिद्घटेऽस्तित्वस्याभावेऽपि तादृशप्रयोगसभवात् । अतोऽत्र क्रियासङ्गतत्वेऽपि प्रयो
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प्रथम भंग मे जिस तरह स्वचतुष्टय से अस्तित्व का बोध होता है वैसे हो नास्तित्व का बोध न हो जाय इस अनिष्ट प्रथ की निवृत्ति करने के लिए एवकार का प्रयोग किया गया है । इससे यह प्रतिफलित होता है कि स्वरूप आदि से वस्तु का अस्तित्व ही है न कि नास्तित्व। वह एवकार तीन तरह का है - पहला प्रयोग व्यवच्छेद वोधक, दूसरा अन्ययोग व्यवच्छेद बोधक और तीसरा अत्यन्तायोग व्यवच्छेद बोधक | इनमे विशेषरण के साथ जुडने वाला एवकार प्रयोग व्यवच्छेद बोधक है जैसे कि शंख श्वेत ही है । विशेष्य के साथ प्रयुक्त एवकार ग्रन्ययोग व्यबच्छेद बोधक होता है जैसे धनुर्धर अर्जुन ही है । और क्रिया के साथ प्रयुक्त होने वाला एवकार प्रत्यन्तायोग व्यवच्छेदबोधक है, जैसे नील कमल होता ही है । " स्यादस्त्येव घट. " इस भंग मे यद्यपि क्रिया-सगत एवकार है तो भी वह प्रत्यन्तायोग व्यवच्छेदक नही है; क्योकि अनिष्ट की आशंका है। किसी घड़े मे प्रस्तित्त्व के न होते हुए भी इस प्रकार के प्रयोग की सभावना है। इसलिए प्रथम भंग में एवकार के क्रिया संगत