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________________ ( ११४ ) अस्यायमर्थ. यदाऽभिन्न वस्तु एकगुणरूपेणोच्यते गुरिगनां गुरगरूपमन्तरेण विशेषप्रतिपत्त रसभवात् तदा सकलादेशः । एको हि जीवोऽस्तित्वादिष्वेकस्य गुणस्य रूपेरण प्रभेदवृत्या अभेदोपचारेण वा निरंशः समस्तो वक्त मिष्यते । विभागनिमित्तस्य तत्प्रतियोगिनो गुणान्तरस्याविवक्षितत्वात् । कथमभेदवृत्ति., कथ चाभेदोपचारश्च इतिचेत्-द्रव्यार्थत्वेनाश्रयणे तदव्यतिरेका दभेदवृत्ति.। पर्यायार्थत्वेनाश्रयणे परस्परव्यतिकरेऽप्येकत्वारो पादभेदोपचारः इति । अभेदवृत्त्यभेदोपचारयोरनाश्रयणे एकधर्मात्मकवस्तुविषयबोधजनकवाक्यं विकलादेशः। मतलब यह है कि जब अभिन्न वस्तु एक गुण रूप से कही जाती है तब वस्तु का गुण रूप के बिना विशेष ज्ञान न हो सकने से एक धर्म द्वारा कथन करना ही सकलादेश है; क्योकि एक ही जीव द्रव्य अस्तित्व प्रादि सब धर्मों में एक धर्म रूप से अभेदवृत्ति के कारण अथवा अभेद के उपचार मे अंश रहित होता हुआ सम्पूर्ण वस्तु का कथन करना ही अभीष्ट है; क्योंकि विभाग के कारणभूत अन्य अन्य धर्मो का कथन करना इष्ट नहीं है। अभेदवृत्ति या अभेदोपचार कैसे है तो उत्तर है कि जब द्रव्याथिक नय का आश्रय लिया जाता है तो द्रव्यत्व रूप से अभेद होने के कारण अभेदवृत्ति है; क्योकि द्रव्यत्व धर्म से सब द्रव्यो का अभेद है। पर्यायाथिक नय के आश्रय से देखा जाय तो पर्यायो में परस्पर भेद होने पर भी द्रव्यत्व स्वरूप एकत्त्व का अध्यारोप होने से अभेद का उपचार है। अभेदवत्ति या अभदोपचार का प्राश्रय न लेते हुए वस्तु सम्बन्धी एक धर्म का बोध कराने वाले वाक्य को विकलादेश कहते है।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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