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परो । नाप्यसत्त्वमेव, स्वरूपादिभिः सत्त्वस्यापि प्रतीतिसिद्धत्वात् । नापि तदुभयमेव, तदुभयविलक्षणस्यापि जात्यन्तरस्य वस्तुनोऽनुभूयमानत्वात् । यथा दधिगुडचातुर्जातकादिद्रव्यो द्रव पानक केवलं दधिगुडाद्यपेक्षया जात्यन्तरत्वेन पानकमिद सुस्वादु सुरभीति प्रतीयते । तथा च विविक्तस्वभावाना सप्तधारणा तद्विपयसशयजिज्ञासादिक्रमेण सप्तोत्तररूपा सप्तभगी
सिंद्धति,।
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इयं च सप्तभगी द्विविधा, प्रमाणसप्तभगी नयसप्तभंगी चति । किं पुनः प्रमाणवाक्यं कि वा नयवाक्यमिति चेत् :
एकधर्मबोधनमुखेन तदात्मकानेकाशेषधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्व सकलादेशत्वं । तदुक्त-"एकगुणमुखेनाशेषवस्तुरूपसंग्रहात् सफलादेश ।" का स्वरूप है क्योकि स्वरूपादि से सत्त्व का भी, अनुभव होता है। और सत्त्व, असत्त्व, उभय भी वस्तु का स्वरूप नही है क्योंकि उभय रूप से विलक्षण स्वरूप भी प्रतीति मे आता है। जैसे दही और गुड मे मिर्च, इलायची, केसर तथा लोंग के सयोग से एक अपूर्व ही पानक रस उत्पन्न होता है जो केवल दही गुडादि की अपेक्षा से विलक्षण स्वादवाला तथा सुगन्ध युक्त होता है । इससे सातो धर्मों के भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले सिद्ध हो जाने से उन धर्मों के विषयभूत संशय जिज्ञासा वगैरह के क्रम से सात उत्तर रूप सप्तभगी सिद्ध हुई।
यह सप्त भगी दो प्रकार की है-प्रमाण सप्तभगी और नय सप्तभगी। यह पूछा जाने पर कि प्रमाण वाक्य किमे कहते है और नय वाक्य क्या है तो कहते है-एक धर्म का ज्ञान कराते हुए सम्पूर्ण धर्मस्वरूप वस्तु का ज्ञान कराने वाले वाक्य को सकलादेश कहते है। ऐसा ही अन्य प्राचार्यों ने भी कहा है-वस्तु के एक धर्म के द्वारा शेष सब वस्तु के स्वरूपो का सग्रह करना सकलादेश है।