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________________ ( १०० ) अध्यात्मभाषया तु मूलनयो द्वौ, निश्चयो व्यवहारश्चेति । तत्र निश्चयोऽभेदविषयो, व्यवहारस्तु भेदविषयः । निश्चयोऽपि द्विविधः, शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च । निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयकः शनिश्चयो, यथा केवलज्ञानादयो जीवः । सोपाधिकतदभेदविषयकोऽशुद्धनिश्चयो यथा मतिज्ञानादयो जीवः । व्यवहारो द्विविधः सद्भ तव्यवहारोऽसद्भ तव्यवहारश्च । तत्रैकवस्तुभेदविपयः सद्भ तव्यवहारः । भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भतव्यवहारः। सद्भ तव्यवहारोऽपि द्विविधः, उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र सोपाधिकगुणगुणिनोर्भेदविपय उपचरितसद्भ तव्यवहारो यथा जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः। निरूपाधिक अध्यात्म शास्त्र मे तो मूल नय दो है- निश्चय और व्यवहार । निश्चय नय अभेद को-विषय करता है तो व्यवहार भेद को विषय करता है अर्थात निश्चय नय पर निरपेक्ष स्वभाव का वर्णन करता है तो व्यवहार नय पर सापेक्ष पर्यायों को ग्रहण करता है। निश्चय नय भी दो प्रकार का है-शुद्ध निश्चय अशुद्ध निश्चय । स्वाभाविक गुण गुणी के अभेद को विपय करने वाला अशुद्ध निश्चय है जैसे जीव को केवल दर्शन, केवल ज्ञान का का कहना । पर सापेक्ष गुण गुणी के अभेद को विषय करने वाला अशुद्ध निश्चय है जैसे जीव कोक्षायोपशमिक - मतिनानादिक ज्ञानों का कर्ता कहना। व्यवहार भी दो प्रकार का है-सद्भुत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार । वस्तु में अपने गुणों की दृष्टि से भेद करना सद्भुत व्यवहार है। वस्तु में अन्य द्रव्य के गुणों की दृष्टि से भेद करना असद्भूत व्यवहार है। सद्भुत व्यवहार के भी दो भेद हैं-उपचरित और अनुपचरित। 'गुण गुणी के परनिमित्तक भेद को विषय करना वह उपचरित सद्भुत व्यवहार है-जैसे जीव के मतिज्ञानादिक गुण । गुण
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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