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________________ (६६ ) तद् भेदप्रभेदविषयत्वात् । संग्रहस्तु बहुविषयोऽभेदगोचरत्वात् । ऋजुसूत्रस्ततोऽप्यल्पविषयो वर्तमानपर्यायमात्रविपयत्वात् । व्यवहारस्तु त्रिकालविपयत्वाद्बहविषय । ऋजसूत्रे लिगादिभेदे मत्यपि नार्थभेद स्वोक्रियतेऽत शब्दनयस्तस्मादल्पविषय.। ऋजुसूत्रस्तु बहुविषयः । पर्यायभेदेनाभिन्नमर्थ प्रतिपादयतः शब्दाद् बहुविषयात् समभिरूढ़ सूक्ष्मविपयः। स हि पर्यायभेदेन भिन्नमथं व्यनक्ति। क्रियाभेदेऽपिचाभिन्नमर्थ कथयत समभिरूढाने वभूतो बहुविषय तस्य ततोऽल्पविषयत्वात् । एते नया गुणप्रधानतया परस्परतंत्रा सम्यग्दर्शनहेतवो भवन्ति । एतच्च सर्वं नयाना प्ररूपणमागमभाषया व्यवहारापेक्षया । 'सग्रहीत अर्थ मे भेद करता है । सग्रह नय बहु विषयक है क्योकि वह सन्मात्रग्राही है। ऋजूसूत्र व्यवहार से भी अल्प विषय वाला है क्योंकि वह मात्र वर्तमान पर्याय को विषय करता है। व्यवहार नय तो तीनों कालो को विषय करता है अत: महा विषयक है। ऋजूसूत्र नय लिंगादि भेद होने पर भी अंर्थभेद स्वीकार नहीं करता इसलिए शब्द नय उसमें अल्प विषय वाला है ही। ऋजूसूत्र तो उससे महा विषयक है। पर्यायवाची शब्दो में भेद होने पर भी अर्थ भेद न मानने वाले शब्द नय से पर्यायवाची शब्दों से अर्थभेद की कल्पना करने वाला समभिरूढ नय सूक्ष्म विषय वाला है। शब्द प्रयोग मे क्रिया की चिन्ता नही करने वाले समभिरुढ से क्रिया काल मे ही उस शब्द का प्रयोग मानने वाला एवंभूत अल्पविषयक है । ये सातों नय गुण प्रधान होने से एक दूसरे की अपेक्षा रखते हुए सम्यग्दर्शन के कारण होते है। सातों नयो का यह कथन प्रागमिक भाषा में व्यवहार नय की अपेक्षा से है।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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