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(६८ तदेवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजकः | यदैव गच्छति तदैव गोन स्थितो न शयित इति । क्रियानिरपेक्षत्वेन क्रियावाचकेपु काल्पनिकोव्यवहारस्तदाभास. ।
एप पूर्वे चत्वारोऽर्थनयाः अर्थप्रधानत्वात् । अर्थप्रधानत्वं च शब्दापेक्षा विनाऽर्थप्ररूपणमात्रपरत्वं । अवशिष्टाश्च त्रय' शब्दनयाः शब्दप्रधानत्वात, शब्दप्रधानत्वं च शब्दापेक्षयाऽर्थप्ररूपकत्व । एते सर्वेऽपि नयाः पूर्वपूर्वमहाविषया: उत्तरोत्तराऽल्पविषयाश्चेति । तथाहि नैगमनयात् संग्रहोऽल्पविषय सन्मात्रग्राहित्वात्तस्य । नैगमस्तु भावाभावविषयत्वाद् बहुविषयः। यथैव नैगमस्य भावे संकल्पस्तथाऽभावेऽपि । व्यवहारः संग्रहादपि अल्पविषयः
कहना, पूजन अभिषेकादि करते हुए इन्द्र नही कहना । गाय जब चले तभी गाय कहना-बैठे और सोते हुए नही । क्रिया के अनुसार शब्द का प्रयोग न कर अन्य शब्द का प्रयोग करना एवम्भूताभास है।
इन सात नयों में पहले के चार नय अर्थ प्रधान होने से अर्थनय है। इनको अर्थ प्रधानता इसीलिए है कि शब्दो की अपेक्षा के बिना मात्र ये पदार्थ की प्ररूपणा करते है। बाकी बचे हुये तीन नय शब्द शास्त्र की भूमिका अदा करने से शब्द 'नय है। इन्हे शब्द प्रधान कहने का कारण यही है कि शब्द की अपेक्षा पदार्थ का निरूपण करते है। ये सब नय पहले पहले वाले महा विषय वाले है तो आगे आगे वाले अल्प विषयक हैं। जैसे कि नैगम नय से सग्रह नय अल्प विषय वाला है क्योंकि वह सत् तक ही सीमित है। गम नय तो सत और असत् दोनो को विषय करता है अतः महाविषय वाला है । नेगम नय जैसे सत् में संकल्प करता है वैसे ही असत में भी । व्यवहार नय संग्रह नय से भी अल्प विषयक है क्योंकि वह संग्रह के द्वारा