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( १०१ ) गुणगुणिनोभेदविषयोऽनपचरितसद्ध तव्यवहारो, यथा जीवस्य . केवलज्ञानादयो गुणा. । असद्ध तव्यवहारोऽपि द्विविधः उप
चरितानुपचरितभेदात् । तत्रासंश्लिष्टवस्तुसंबंधविषयः प्रथमो यथा देवदत्तस्य धनम् । संश्लिष्टवस्तुसंबन्धगोचरश्च द्वित्तीयो
यथा जीवस्य शरीरम् Ind
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(स्याद्वादनिरूपणम् . वाद सिद्धान्त' । स्यात्प्रधानो वादः स्याद्वाद' । स्यादित्ययं निपातोऽनेकान्तवाचको द्योतको वा क्वचित् प्रयुज्यमानस्तद्विशेषणतया प्रकृतार्थतत्त्वमवयवेन सूचयति प्रायशो निपातानां तत्स्वभावत्वादेवकारादिवत् । स्याद्वादो हि सर्वथैकान्तत्यागात् गुरपी के स्वनिमित्तक भेद को विषय करना अनुपचरित असद्भूत व्यवहार है-जैसे जीव के केवल ज्ञानादि गुण । असद्भूत च्यवहार के भी उपचरित और अनुपचरित दो भेद हैं। उनमें भिन्न वस्तु के सबन्ध को विपय करना पहला है-जैसे देवदत्त का धन । अभिन्न वस्तु के सम्बन्ध को विषय करना दूसरा है जैसे जीव का शरीर
/ स्याद्वाद निरूपण v.. वाद का अर्थ सिद्धान्त है। स्यात् अर्थात् अपेक्षा प्रधान सिद्धान्त को स्याद्वाद कहते है। 'स्यात्' निपात है। निपात द्योतक भी होते है तो वाचक भी। यहां यह निपात अनेकान्त का वाचक या द्योतक है । जहा कही भी यह स्यात् शब्द विशेषण रूप से प्रयुक्त होता है वहा वह उस पदार्थ या तत्त्व को अवयव रूप से सूचित करता है। प्रायः करके निपातो का स्वभाव ऐसा होता है-एवकारादि की तरह, 'निश्चय' रूप से यह स्याद्वाद सर्वथा एकान्त का परिहार करके सप्तभंग नय