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________________ ( ८८ ) वस्तु । न केवलं सामान्य, नापि केवलो विशेपो, नापि द्वयं स्वतंत्रम् ; किन्तु तदात्मकं वस्तु प्रमाणग्राह्य तस्यैव वस्तुत्व. समर्थनात् । तथाचोक्त-"अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात् पूर्वोतराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षापरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च ।" गोरित्यादिप्रत्ययोऽनवृत्तकार | श्याम शबल इत्यादि प्रत्ययश्च व्यावृत्ताकारः। वस्तु पूर्वाकारं जहाति तदानीमेव चोत्तराकारं स्वीकरोति द्रव्यात्मना च तदेव तिष्ठति । एतेन वस्तुनि चत्वारो धर्मा. सिद्धा भवंति। सामान्यद्वय विशेषद्वय चेति । एक तिर्यक सामान्य सदृशपरिणामात्मक खण्डमुण्डादिपु गोत्ववत् । परापरपर्यायव्यापिद्रव्यमूद्ध्वतासामान्यं द्वितीय, स्थासादिपर्यायपु मृत्तिकावत् । तथैव एक. पर्यायाख्यो विशेष: न केवल सामान्य रूप और न केवल विशेष रूप और न स्वतन्त्र रूप से दोनो रूप, किन्तु सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है । और वस्तु भी वास्तव मे वही है जो सामान्य विशेपात्मक हो। ऐसा ही कहा है- "अनवृत्त व्यावृत्त (सामान्य विशेष) प्रत्यय का विशद होने से पूर्व प्राकार का छोड़ना, उत्तर आकार का ग्रहण करना और किसी न किसी आकार से स्थिर रहना रूप श्रिलक्षण परिणमन से अर्थ क्रिया की उत्पत्ति होती है। गाय गाय यह सदृश प्रतीति अनवृत्ताकार प्रत्यय है। काली गोरी यह विशेष प्रतीति व्यावृत्ताकार प्रत्यय है। वस्तु पहले के आकार को छोडती है और उसी समय दूसरे आकार को ग्रहण करती है और द्रव्य रूप से स्थिर रहती है। इससे वस्तु में चार धर्म सिद्ध होते है- दो सामान्य और दो विशेष । एक तिर्यक सामान्य है जो सदृश परिणमन वाला होता है-जैसे खंडी मुडी गायों में गो-पना। दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य है जो पहली और वाद की पर्यायो में रहने वाला एक द्रव्य है-जसे स्थास, कोशकुशूलादि पर्यायों में रहने वाली मिट्टी । इसी प्रकार एक पर्याय
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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