SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६ ) एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविपरिणामरूपः प्रात्मनि हर्षविषादादिवत् । द्वितीयोऽर्थान्तरगतविसदृशपरिणामात्मको व्यतिरेकाख्यो गोमहि. पादिवत् । प्रमाणफलं तु द्विविधं । साक्षात्फलमज्ञाननिवृत्तिः, परम्परया तु हानोपादानोपेक्षाः । तत्फलं प्रमाणादभिन्न भिन्न च । थ: प्रमिमीते तस्यैवाजाननिवृत्तिर्भवति, स एव जहात्यादत्ते उपेक्षते चेति प्रतीतिसकलजनानुभवसिद्धा। अतः प्रमाणफलयोरभेद एव । करणक्रियापरिणामभेदात्त भेद इति । प्रमाण हि करणं, तत्फलं तु प्रमितिरूपा क्रिया इति । ॥ इति द्वितीयोऽध्याय. ।। - नाम का विशेष होता है जो एक ही द्रव्य में एक के बाद एक होने वाली पर्याय रूप होता है-जैसे आत्मा मे सुख दुःख वगैरह । दूसरा व्यतिरेक नाम का विशेष है जो दूसरे पदार्थों में रहने वाला भिन्न पर्याय रूप होता है, गाय भैंस की तरह । प्रमाण का फल दो प्रकार का है। उसका साक्षात् फल अज्ञान का मिटना है तो परम्परा फल त्याग उपावान और उपेक्षा बुद्धि है। वह फल प्रमाण से अभिन्न भी है और भिन्न भी । जो जानता है उसीका अज्ञान मिटता है, और वही छोडता है या ग्रहण करता है अथवा उपेक्षा करता है, ऐसी प्रतीति सब लोगों को अनुभव सिद्ध है। इसलिए प्रमाण और फल अभिन्न ही है। और करण क्रिया रूप परिणमन के भेद से भेद भी हैं। प्रमाण करण है जवकि उसका फल जाननै रूप क्रिया है। ' [दूसरा अध्याय समाप्त हुना। ]
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy