SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८७ ) अनक अन्ताः-अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचराः सामान्यविशेषादयोधर्माः यस्य सोऽनेकांतः। ननु आगमस्यापौरुषेयत्वान्नित्यत्वाच्च कथमाप्तवाक्यनिबंधनत्वमितिचेन्न,पागमस्य सर्वथाऽपौरुषेयत्वनित्यत्वाभावात् । मागमो हि द्रव्यादिसामान्यापेक्षया अनादिनिधन इष्यते, नहि केनचित पुरुषेण क्वचित कदाचित कथचिदुत्पेक्षित.सः । द्रव्यादिविशेषापेक्षया तु आदिरन्तश्च भवतीत्याप्तवाक्यनिबंधनत्वमागमस्योचितमेव । । अधुना प्रमाणस्वरूपसंख्यानिरूपणानन्तरं तद्विषयफलयोरपि किञ्चित् प्रस्तूयते । प्रमाणस्य विषयो हि सामान्यविशेषात्मकं - भूत सामान्य विशेष वगैरह अनेक अन्त-अर्थात् धर्म जिसमें होते है यह अनेकान्तात्मक कहलाता है। जैसे कि पदार्थ सामान्य विशेषादि अनेक धर्म-याला है क्योंकि बह अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय का विषय है। । शका-आगम तो अपौरुषेय और निस्य होता है फिर उसको आप्त-वाक्य-जन्यत्व कैसे सम्भव है ? समाधान-ऐसा कहना युक्ति संगत नही, क्योकि आगम सर्वथा अपौरुषेय और नित्य नहीं होता। निश्चय से द्रव्यादि सामान्य की अपेक्षा से पागम के नित्य-पना स्वीकार किया गया है, क्योकि किसी भी पुरुष के द्वारा वह द्रव्य कही कभी किसी तरह बनाया नहीं गया । द्रव्यादि विशेष की अपेक्षा से तो आदि भी होता है और अन्त भी, अतः मागम के प्राप्त-वाक्य कारणता उचित ही है। प्रमाण का स्वरूप मौर सख्या वर्णन करने के वाद अब प्रमाण का विषय और फल का कुछ वर्णन किया जाता है। निश्चय से प्रमाण का विषय सामान्य विशेषात्मक वस्तु है। Foin
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy