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________________ क्षाणामिन्द्रियनिरपेक्षाणामप्यवधिमनःपर्ययकेवलानां प्रत्यक्षत्वाविरोधात् । इन्द्रियजन्यत्वाभावेऽपि तेषां विशदप्रतिभासात्मकत्वात् प्रत्यक्षत्व । न खलु इन्द्रियजन्यत्व प्रत्यक्षत्वप्रजोकमपि तु विशदप्रतिभासात्मकत्वं । कथं पुनरेतेषां प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वमिति चेत् रूदित इति । अथवा अश्नुते अक्ष्णोति व्याप्नोति वा सकलद्रव्यक्षेत्रकालभावानिति अक्षा आत्मा तन्मात्रापेक्षोत्पत्तिक प्रत्यक्षमिति । तहि इन्द्रियजन्यस्याप्रत्यक्षत्वं स्यात् इति चेन्न, इन्द्रियजन्यज्ञानस्य वस्तुतोऽप्रत्यक्षत्वात्, उपचारत एव तस्य प्रत्यक्षत्वस्वीकारादित्युक्तमेव । उपचारमूलं तु तस्य देशत्तो विशदत्वमिति । एतेनाक्षेभ्यः इन्द्रियेभ्यः परावृत्तं परोक्षमित्यपि निरस्तं; प्रवेश उत्तर:-ऐसा, कहना ठीक नही, मात्र आत्मा की अपेक्षा' रखने वाले एवं इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानों के प्रत्यक्ष होने में कोई विरोध नही है । इन्द्रियों से पैदा न होने पर भी उनको निर्मल प्रतिभास स्वरूप होने से प्रत्यक्षता है ही। वास्तव में इन्द्रियो से पैदा होना प्रत्यक्षता नही बल्कि ज्ञान का निर्मल होना है।। इन ज्ञानों को प्रत्यक्ष शब्द से कैसे कहा गया तो उसर है कि रूढि से। अथवा सम्पूर्ण द्रव्य क्षेत्र काल भावों मे जो व्याप्त हो वह अक्ष अर्थात् प्रात्मा है और मात्र उसकी अपेक्षा जो उत्पन्न हो वह प्रत्यक्ष है । ऐसी मान्यता से इन्द्रियो से पैदा होने वाला ज्ञान अप्रत्यक्ष हो जायगा, ऐसा भीनही है, क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान वास्तव में तो अप्रत्यक्ष ही होता है, उसे तो व्यवहार से ही प्रत्यक्ष माना है-ऐसा पहले कह दिया है। और व्यवहार से मानने का कारण भी उसकी आशिक निर्मलता है। ऐसा सिद्ध होने से इन्द्रियो से अलावा जो ज्ञान होता है वह परोक्ष
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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