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द्यस्येव परोक्षलक्षणत्वात् । नन्वतीन्द्रियप्रत्यक्षकल्पनाऽसंभवेति चेन्न, अर्हतोऽतीन्द्रियप्रत्यक्षस्य संभवात् । तस्य सर्वज्ञत्वात् । नन्वियमपि तादृश्येव कल्पना, सर्वज्ञत्वासंभवादिति न वाच्यं, अनुमानत. सर्वज्ञत्वसिद्धेः । तथाहि कश्चित् पुरुषः सकलपदार्थसाक्षात्कारी, तक्ष्ग्रहरणस्वभावत्वे सति प्रक्षीरगप्रतिबंधप्रत्ययत्वात् । यो यद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबंधप्रत्ययः स तत्साक्षात्कारि, यथाऽपगततिमिरं लोचनं रूपसाक्षात्कारीत्यनुमानेन सर्वज्ञत्वसिद्ध: । सर्वसामान्यसाधनानन्तरं-अर्हन सर्वजो निर्दोषत्वात, यस्तु न सर्वजो नासौ निर्दोपो यथा . रथ्यापुरुष इति केवलव्यतिरेकिरणानुमानेनार्हतः सर्वज्ञत्व साध्यते ।
है-इसका भी खंडन हो जाता है, क्योकि निर्मल नहीं होना ही परोक्ष का लक्षण है । शंकाकार कहता है कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष की कल्पना असंभव है, पर यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि ग्रहन्त भगवान के अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है-उसके सर्वज्ञ होने से । फिर शंकाकार कहता है कि यह तो अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष जैसी ही कल्पना है, क्योंकि सर्वज्ञ होना असभव है, ऐसा कहना भी मयुक्त है । अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है । जैसे. कि कोई पुरुप सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष करने वाला है, उनके ग्रहरण करने का स्वभाव होते हुये वाधक कारणों का नाश हो जाने से । जिसके ग्रहण करने का स्वभाव होते हुए बाधक कारण का नाश हो जाता है वह उमका साक्षात्कार करता है, जैसे अंधकार के विनाश होने पर चक्षु रूप का प्रत्यक्ष करती है। इस अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। सर्वज्ञ सामान्य की सिद्धि हो जाने पर अर्हन्त सर्वज्ञ है, दोष रहित होने से । जो सर्वज्ञ नही होता वह निर्दोष नही होता जैसे गली में रहने वाला मनुष्य । इस तरह केवल व्यतिरेकी अनुमान से अर्हन्त भगवान सर्वज्ञ सिद्ध होते है। अर्हन्त भगवान दोप रहित है,