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पर्यायान विजानाति तदवविज्ञान मर्यादारूपत्वात् । यत् पुनः परमनोगतपुद्गलद्रव्यविपयं तन्मन पर्ययजानं । एतच्च ज्ञानद्वयं स्वस्वावरणवीर्यान्तरायकर्मक्षयोपणमाद् समुत्पद्यते । पूर्वोक्त सांव्यवहारिफप्रत्यक्षमपि स्त्रावरणक्षयोपशमात् संजायते । सर्वद्रव्यपर्यायविषयं सकलं । तच्च ज्ञानावरणादिघातिकर्मचतुष्टयनिरवशेषक्षयादाविर्भूतं केवलज्ञानमेव लोकालोकप्रकाशाक, "सर्वद्रव्यपर्यायपु केवलस्य" इति तत्त्वार्थसूने प्ररूपरणात् । तदेवमवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानत्रयं सर्वतो वैशयमात्ममात्रसापेक्षत्वात्।
ननु अक्षं नाम चक्षुरादिकमिन्द्रियं तत्प्रतीत्य यदुत्पद्यते तस्यैव प्रत्यक्षत्वमुचितं नान्यस्य इति, तदसत्, आत्ममात्रसापे
से । और जो दूसरों के मन में स्थित भावों को जानता है यह मनःपर्ययज्ञान है। ये दोनो ज्ञान अपने अपने प्रावरण कर्म तथा वीर्यान्सराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। पहले कहा गया साव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी अपने प्रावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। जो सम्पूर्ण द्रव्यों की सम्पूर्ण पर्यायों को जानता है वह सकल प्रत्यक्ष कहलाता है इस प्रकार ज्ञानावरणादि चार घातिया कमों के सम्पूर्ण भय से पैदा होने वाला केवलज्ञान ही लोक और अलोक का प्रकाशक है। "सव द्रव्यों की सम्पूर्ण पर्यायों को केवलज्ञान विषय करता है"- ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में निरूपण किया गया है। अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ही पूर्ण निर्मल होते हैं क्योंकि बे मात्र प्रारमा से पैदा होते हैं।
शकाः-अक्ष नाम चक्षु वगैरह इन्द्रियो. का है, उनके द्वारा जो ज्ञान होता है उसे ही प्रत्यक्ष कहा जाना उचित है, अन्य को नहीं।