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________________ योरपि तस्य कारणत्वादिति चेन, अर्थालोकयो नकारणत्वानुपपते. अर्थाभावेऽपि केशमशकादिज्ञानोत्पत्ते । आलोकस्यापि न ज्ञानकारणत्वं, तदन्वयव्यतिरेकाभावात् , आलोकसत्वेऽपि घुकादीना ज्ञानोत्पत्त्यभावात् । तदभावेऽपि च रात्रौ नक्तंचरादीना ज्ञानोत्पत्ते.। सर्वथा विशदं पारमार्थिक प्रत्यक्षं। यज्ज्ञानं साकल्येन स्पष्ट तत्पारमार्थिक प्रत्यक्ष तदेव मुख्यप्रत्यक्षमिति निगद्यते । तद् द्विविघं सकलं विकलं च। तत्र पुद्गलद्रव्यपर्यायविपय विकलं । तदपि द्विविधमवधिज्ञान मन.पर्ययज्ञान च । यद् द्रव्यक्षेत्रकालभावमर्यादया-पुद्गल ( रूपि ) द्रव्यस्य काश्चित् बताया जब कि पदार्थ और प्रकाश भी उसके कारण है ? समाधान -ऐसा नहीं हो सकता। पदार्थ और प्रकाश को ज्ञान का कारण नहीं माना जा सकता। क्योकि पदार्थ के न होने पर भी वालो में मच्छरादि का ज्ञान होता है । प्रकाश भी ज्ञान का कारण नही क्योंकि ज्ञान के साथ उसका अन्वय व्यतिरेक नही है । प्रकाश के होने पर भी उल्लू वगैरह को ज्ञान नही होता और प्रकाश के न होने पर भी रात्रि मे बिल्ली, उल्लू वगैरह को ज्ञान होता है। पूर्ण निर्मल ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं । जो ज्ञान पूर्ण रूप से स्पष्ट होता है वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष है और वही मुख्य प्रत्यक्ष कहा जाता है । वह दो प्रकार का है सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । उनमें जो पुद्गल द्रव्य की पर्याय को विशद करता है वह विकल प्रत्यक्ष कहा जाता है। वह भी दो प्रकार का है-अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान । जो द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की मर्यादा से पुद्गल द्रव्य की कुछ पर्यायों को जानता है वह अवधिजान कहा जाता है-मर्यादा पूर्वक जानने
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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