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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [८३ मुक्त है, पूजा और प्रहार में सम है, आहार और अनशन में सम है, अप्रशस्त वृत्तियो का संवारक है, अध्यात्म-ध्यान और योग में लीन है, प्रशस्त प्रात्मानुशासन में रत है, श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र और तप में निष्ठावान् है-वही भावितात्मा श्रमण है। भगवान् ने कहा--कोई श्रमण कभी कलह में फंस जाए तो वह तत्काल सम्हल कर उसे शान्त कर दे। वह क्षमा याचना करले। सम्भव है, दूसरा श्रमण वैसा करे या न करे, उसे आदर दे या न दे, उठे या न, उठे, वन्दना करे, या न करे, साथ में खाये या न खाये, साथ में रहे या न रहे कलह को उपशान्त करे या न करे, किन्तु जो कलह का उपशमन करता है वह धर्म की आराधना करता है, जो उसे शांत नही करता उसके धर्म की आराधना नहीं होती। इसलिए आत्म-गवेपक श्रमण को उसका उपशमन करना चाहिए। गौतम ने पूछा-भगवन् ! उसे अकेले को ही ऐसा क्यो करना चाहिए ? भगवान् ने कहा- गौतम ! श्रामण्य उपशम-प्रधान है । जो उपशम करेगा, वही श्रमण, साधक या महान् है। उपशमन विजय का मार्ग है। जो उपशम-प्रधान होता है, वही मध्यस्थमाव और तटस्थ-नीति को वरत सकता है। साम्य-योग जाति और रंग का गर्व कौन कर सकता है ? यह जीव अनेक वार ऊंची और अनेक वार नीची जाति में जन्म ले चुका है। यह जीव अनेक वार गोरा और अनेक वार काला बन चुका है। जाति और रंग, ये बाहरी आवरण हैं । ये जीव को हीन और उच्च नहीं बनाते। वाहरी आवरणो को देख जो हृष्ट व रुष्ट होते हैं, वे मूढ़ हैं। प्रत्येक व्यक्ति में स्वाभिमान की वृत्ति होती है। इसलिए किसी के प्रति भी तिरस्कार, घृणा और निम्नता का व्यवहार करना हिंसा है, व्यामोह है । तितिक्षा ___ भगवान् ने कहा-गौतम ! अहिंसा का आधार तितिक्षा है। जो कष्टो से घबड़ाता है, वह अहिंसक नहीं हो सकता।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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