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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
आत्म-पतन के भय से, किसी बाहरी संकोच या भय से नहीं, परम-आत्मा के सान्निध्य में रहते हैं-वे आध्यात्मिक हैं ।
उन्ही में परम-आत्मा से सम्बन्ध बनाये रखने के सामर्थ्य का विकास होता हैं। इसके चरम शिखर पर पहुँच, वे स्वयं परम-आत्मा बन जाते हैं । साधना के सूत्र
(अप्रमाद) आर्यो ! आओ! भगवान् ने गौतम आदि श्रमणों को आमंत्रित किया। भगवान् ने पूछा-आयुष्यमन् श्रमणो ! जीव किससे डरते हैं ?
गौतम आदि श्रमण निकट आये, बन्दना की, नमस्कार किया, विनम्र भाव से लोले-भगवन् ! हम नही जानते, इस प्रश्न का क्या तात्पर्य हैं ? देवानुप्रिय को कष्ट न हो तो भगवान् कहे। हम भगवान् के पास से यह जानने को उत्सुक हैं।
भगवान् वोले-आर्यो ! जीव दुःख से डरते हैं।
गौतम ने पूछा-भगवन् ! दुःख का कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ?
भगवान्-गोतम ! दुःख का कर्ता जीव और उसका कारण प्रमाद है ।
गौतम-भगवन् ! दुःख का अन्त-कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ?
भगवान् गौतम ! दुःख का अन्त-कर्ता जीव और उसका कारण अप्रमाद
उपशम
मानसिक सन्तुलन के विना कष्ट सहन की क्षमता नही आती। उसका उपाय उपशम है। व्याधियो की अपेक्षा मनुष्य को प्राधियां अधिक सताती हैं। हीन-भावना और उत्कर्प-भावना की प्रतिक्रिया दैहिक कष्टो से अधिक भयंकर होती है, इसलिए भगवान् ने कहा-जो निर्मम और निरहंकार है, 'निःसंग है, ऋद्धि, रस और सुख के गौरव से रहित है, सब जीवो के प्रति सम है, लाभ-अलाभ सुख-दुःख, जीवन, मौत, निन्दा, प्रशंसा, मानअपमान में सम है, अकपाय, अदण्ड, निःशल्य और अभय है, हास्य, शोक ओर पौद्गलिक सुख की आशा से मुक्त है, ऐहिक और पारलौकिक वन्धन से