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________________ प्रज्ञापनों ज्ञान नेत्र है, अचार चरण । पथ को देखा तो सही, पर उस ओर चरण नहीं बढ़ते, देखने से क्या बनेगा ? अभीप्सित लक्ष्य दूर का दूर ही रहेगा, द्रष्टा उसे आत्मसात् नहीं कर पाएगा। यथार्थ को जाना, आचरण में लिया -तभी साध्य सधेगा। यही कारण है, प्राचार का जीवन-शुद्धि के क्षेत्र में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैन दर्शन का तो मानो यह प्राण है । विभावगत आत्मा पुनः अपने शुद्ध स्वरूप में अधिष्ठित हो, इसके लिए सत्य को जानना और उसे अधिगत करने के निमित्त जागरूक भाव से सक्रिय रहना आचार-साधना है। जैन वाङमय इसके बहुमुखी विवेचन से भरा है। ___ महातपा, जनवन्ध प्राचार्य श्री तुलसी के अन्तेवासी मुनि श्री नथमलजी द्वारा रचे 'जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व' से गृहीत 'जैन दर्शन में आचार मीमांसा' नामक यह पुस्तक प्राचार के विविध पहलुओं पर विशद, प्रकाश डालती है। मुनि श्री ने इसमें ज्ञान, चारित्र, साधना, श्रमण-संस्कृति एवं जैन दर्शन और वर्तमान युग आदि विविध विषयों पर सांगोपांग विश्लेषण किया है । श्री तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के अभिनन्दन में इस पुस्तक के प्रकाशन का दायिन्व सेठ मन्नालालजी सुराना मेमोरियल ट्रस्ट, कलकत्ता ने स्वीकार किया, यह अत्यन्त हर्ष का विषय है। तेरापंथ का प्रसार तत्सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन, अणुव्रत आन्दोलन का जन-जन में संचार ट्रस्ट के उद्देश्यो में से मुख्य हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन द्वारा अपनी उद्देश्य-पूर्ति का जो महत्त्वपूर्ण कदम ट्रस्ट ने उठाया है, वह सर्वथा अभिनन्दनीय है। जन-जन में सत्तत्त्व-प्रसार, नैतिक जागरण की प्रेरणा तथा जन-सेवा का उद्देश्य लिए चलने वाले इस ट्रस्ट के संस्थापन द्वारा प्रमुख समाजसेवी,
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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