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जैन दर्शन में आचार मोमांसा
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(६) लोक - मर्यादा - जितने क्षेत्र में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं, उतना क्षेत्र 'लोक' है और जितना क्षेत्र लोक है, उतने क्षेत्र में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं ।
(१०) लोकगति कारणाभाव - लोक के सब अन्तिम भागो में आवद्ध पार्श्व-स्पृष्ट पुद्गल हैं । लोकान्त के पुद्गल स्वभाव से ही रूखे होते हैं। वे गति में सहायता करने की स्थिति में संघटित नही हो सकते । उनकी सहायता के बिना जीव अलोक में गति नहीं कर सकते ।
असम्भाव्य कार्य
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( १ ) अजीव को जीव नहीं बनाया जा सकता । ( २ ) जीव को अजीव नहीं बनाया जा सकता ।
(३) एक साथ दो भाषा नही बोली जा सकती ।
(४) अपने किए कमों के फलो को इच्छा अधीन नहीं किया जा
सकता ।
( ५ ) परमाणु तोड़ा नहीं जा सकता ।
( ६ ) अलोक में नही जाया जा सकता |
सर्वज्ञ या विशिष्ट योगी के सिवाय कोई भी व्यक्ति इन तत्त्वों का
साक्षात्कार नहीं कर सकता ४० ।
( १ ) धर्म ( गति तत्त्व )
( २ )
(३) श्राकाश
( ४ ) शरीर रहित जीव
(५) परमाणु
( ६ ) शब्द
पारमार्थिक सत्ता
धर्म ( स्थिति तत्त्व )
( १ ) ज्ञाता का सतत अस्तित्व ४१ |
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( २ ) ज्ञेय का स्वतन्त्र अस्तित्व वस्तु-ज्ञान पर निर्भर नहीं है ४ ( ३ ) ज्ञाता और ज्ञेय में योग्य सम्बन्ध |