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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
ध्रुव सत्य
विश्व के सर्व सत्यो का समावेश दो ध्रुव सत्यों-चेतन और अचेतन में होता है। शुद्ध-तत्त्व दृष्टि से चेतन और अचेतन-ये दो ही तत्त्व हैं।
इनके छह भेद विश्व की व्यवस्था जानने के लिए होते हैं। इनके नव भेद आत्म-साधना की साधक-बाधक दशा और साहित्य की मीमांसा के हेतु किए जाते हैं। जैन दर्शन के ध्रुवसत्य
सम्यग् दर्शन के आधार भूत तत्त्व :
(१) आत्मा है (२) नित्य है (३) कर्ता है (४) भोक्ता है (५) बन्ध है (६) मोक्ष है।
विश्व-स्थिति के आधार भूत तत्त्व :(१) पुनर्जन्म-जीव मरकर पुनरपि बार-बार जन्म लेते हैं।
(२) कर्म-बन्ध-जीव सदा (प्रवाह रूपेण अनादि काल से) निरन्तर कर्म वॉधते हैं।
(३) मोहनीय कर्म-बन्ध-जीव सदा (प्रवाह रूपेण अनादि काल से) निरन्तर मोहनीय कर्म बांधते हैं ।
(४) जीव अजीव का अत्यन्ताभाव-ऐसा न हुआ, न भाव्य है और न होगा कि जीव अजीव हो जाए और अजीव जीव हो जाए।
(५) त्रस-स्थावर-अविच्छेद-ऐसा न तो हुआ, न भाव्य है और न होगा कि गतिशील प्राणी स्थावर बन जाए। और स्थावर प्राणी गतिशील बन जाए।
(६) लोकालोक पृथक्त्व-ऐसा न तो हुआ, न भाव्य है और न होगा कि लोक अलोक हो जाए और अलोक लोक हो जाए।
(७) लोकालोक अन्योन्याप्रवेश-ऐसा न तो हुआ, न भाव्य है और न होगा कि लोक अलोक में प्रवेश करे और अलोक लोक में प्रवेश करे।।
(८) लोक और जीवो का आधार-प्राधेय सम्बन्ध-जितने क्षेत्र का नाम लोक है, उतने क्षेत्र में जीव हैं और जितने क्षेत्र में जीव हैं, उतने क्षेत्र का नाम लोक है।