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जैन दर्शन में आचार मीमांसा ६-जीव में अजीव संज्ञा । ७-असाधु में साधु संज्ञा । ८-साधु में असाधु संज्ञा । ६-अमुक्त में मुक्त संज्ञा । १०-मुक्त में अमुक्त संज्ञा । इसी प्रकार सम्यक्-तत्व-श्रद्धा के भी दस रूप बनते हैं :१-अधर्म में अधर्म संज्ञा । २-धर्म में धर्म संज्ञा । ३-अमार्ग में अमार्ग संज्ञा । ४-मार्ग में मार्ग संज्ञा। ५-अजीव में अजीव संज्ञा । ६-जीव में जीव संज्ञा ७–असाधु में असाधु संज्ञा । ८-साधु में साधु संज्ञा। ६-अमुक्त में अमुक्त संज्ञा। १०--मुक्त में मुक्त संज्ञा ।
यह साधक, साधना और साध्य का विवेक है। जीव-अजीव की यथार्थ श्रद्धा के बिना साध्य की जिज्ञासा ही नहीं होती। आत्मवादी ही परमात्मा बनने का प्रयत्न करेगा, अनात्मवादी नही। इस दृष्टि से जीव अजीव का संज्ञान साध्य के आधार का विवेक है । साधु-असाधु का संज्ञान साधक की दशा का विवेक है। धर्म, अधर्म, मार्ग, अमार्ग का संज्ञान साधना का विवेक है। मुक्त, अमुक्त का संज्ञान साध्य-असाध्य का विवेक है। ज्ञान और सम्यग् दर्शन का भेद
सम्यग -दर्शन-तत्त्व-रुचि है और सम्यग -ज्ञान उसका कारण है १०। पदार्थविज्ञान तत्त्व-रुचि के बिना भी हो सकता है, मोह-दशा में हो सकता है, किन्तु तत्त्व-रुचि मोह-परमाणुओ की तीव्र परिपाक-दशा में नही होती। .
तत्त्व रुचि का अर्थ है आत्माभिमुखता, आत्म-विनिश्चय अथवा आत्मविनिश्चय का प्रयोजक पदार्थ-विज्ञान ।