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जैन दर्शन में आचार मीमासा
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दशा को विपरीत दृष्टि से देखता है। तीसरा उसे अविपरीत दृष्टि से देखता है। पहला स्थूल-दर्शन है, दूसरा वहि-दर्शन और तीसरा अन्तर-दर्शन । स्यूल-दर्शन जगत् का व्यवहार है, केवल वस्तु की ज्ञेय दशा से सम्बन्धित है। अगले दोनो का अाधार मुख्यवृत्त्या वस्तु की हेय और उपादेय दशा है। अन्तर-दर्शन मोह के पुदगलो से ढका होता है। तव ( सही नहीं होता इसलिए ) वह मिथ्यादर्शन (विपरीत दर्शन ) कहलाता है। तीन कपाय के ( अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व-मोह, मिथ्यात्व-मोह और सम्यक्त्व-मिथ्यावमोह के पुद्गल-विजातीय द्रव्य का विपाक ) उदय रहते हुए अन्तर्-दर्शन सम्यक नहीं बनता, अाग्रह या आवेश नहीं छूटता। इन विजातीय द्रव्य के दूर हो जाने पर अात्मा में एक प्रकार का शुद्ध परिणमन पैदा होता है । उसकी संज्ञा 'सम्यक्त्व' है। यह अन्तर्-दर्शन का कारण है। वन्तु को जान लेना मात्र अन्तर-दर्शन नहीं, वह आत्मिक शुद्धि की अभिव्यक्ति है। यही सम्यक-दर्शन ( यथार्थ-दर्शन )-अविपरीत-दर्शन, सही दृष्टि, मत्य चि, सत्याभिमुखता, अन्-अभिनिवेश, तत्त्व-श्रद्धा, यथावन्धित वन्तु परिभान है। सम्यक्त्र और सम्यग-दर्शन में कार्य-कारणभाव है। मत्ल के प्रति आस्था होने की क्षमता को मोह परमाणु विकत न कर सके, उतनी प्रतिरोधात्मक शक्ति जो है, वह 'सम्यक्त्व है। यह केवल अात्मिक स्थिति है। मम्यग -दर्शन इसका ज्ञान-सापेक्ष परिणाम है। उपचार-दृष्टि से सम्यग -दर्शन को भी सम्यक्त्व कहा जाता है । मिथ्या दर्शन और सम्यग् दर्शन
मिथ्यात्व का अभिव्यक्त रूप तत्त्व-श्रद्धा का विपर्यय और सम्यक्त्व का अभिव्यक्त रूप तत्त्व-श्रद्धा का अविपर्यय है ।
विपरीत तत्व-श्रद्धा के दस रूप बनते हैं :१-अधर्म में धर्म संज्ञा । २-धर्म में अधर्म संज्ञा। ३-अमार्ग में मार्ग संज्ञा । ४-मार्ग में अमार्ग संज्ञा। ५-अजीव मे जीव संज्ञा ।