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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
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यह ग्रान्तरिक वृत्तियो का बड़ा ही सुन्दर और सूक्ष्म विश्लेषण है। श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र के तारतम्य को समझने की यह पूर्ण दृष्टि है ।
धर्म
श्रेयन् की साधना ही धर्म है । साधना ही चरम रूप तक पहुँच कर सिद्धि बन जाती है। श्रेयम् का अर्थ है - आत्मा का पूर्ण विकास या चैतन्य का निर्द्वन्द्व प्रकाश | चैतन्य सब उपाधियों से मुक्त हो चैतन्यस्वरूप हो जाए, उनका नाम श्रेयस् है । श्रेयम् की साधना भी चैतन्य की आराधनामय है, इसलिए वह भी श्रेयस् है । उनके दो, तीन, चार और उस इस प्रकार अनेक अपेक्षाओं से अनेक रूप बतलाए हैं । पर वह सब विस्तार है । संक्षेप में श्रात्मरमण ही धर्म है। वास्तविकता की दृष्टि ( वन्नुवरूप के निर्णय की दृष्टि ) से हमारी गति सक्षेप की ओर होती है । पर यह साधारण जनता के लिए बुद्धि-गम्य नहीं होता, तब फिर संक्षेप से विस्तार की ओर गति होती है । ज्ञानमय और चरित्रमय आत्मा ही धर्म है । इस प्रकार धर्म दो रूपों में बंट जाता है— ज्ञान और चरित्र ।
ज्ञान के दो पहलू होते हैं—रुचि और जानकारी । सत्य की रुचि हो तभी सत्य का ज्ञान और नृत्य का ज्ञान ही तभी उसका स्त्रीकरण हो सकता है ।
इस दृष्टि से धर्म के तीन रूप बन जाते है- ( १ ) रुचि, ( श्रद्धा या दर्शन ) ( २ ) ज्ञान ( ३ ) चरित्र |
चरित्र के दो प्रकार हैं :
( १ ) संवर ( क्रियानिरोध या त्रक्रिया )
( २ ) तपस्या या निर्जरा ( ग्रक्रिया द्वारा क्रिया का विशोधन ) इस दृष्टि से धर्म के चार प्रकार बन जाते हैं— ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । चारित्र धर्म के दम प्रकार भी होते हैं
( १ ) क्षमा
( २ ) मुक्ति
( ३ ) श्रार्जव
( ४ ) मार्दव
इनमें सर्वाधिक
(५) लाघत्र
( ६ ) सत्य
( ७ ) संयम
( ८ ) लाग
प्रयोजकता रत्न त्रयी - ज्ञान, दर्शन ( श्रद्धा या रुचि -
(६) धर्म-दान
(१०) ब्रह्मचर्य