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जैन दर्शन में आचार मीमांसा [१३३ है 331" हंतव्य और घातक, शासितव्य और शासक में समता है किन्तु एकत्व नही है। कर्ता के साथ क्रिया दौड़ती है और उसका परिणाम पीछे लगा आता है। सरल चतु से देखता है, वह दूसरो को मारने में अपनी मौत देखता है, दूसरों को शासित और अधीन करने में अपनी परवशता देखना है, दूसरो को सताने में अपना सन्ताप देखता है। एक शब्द में क्रिया की प्रतिक्रिया (अनुसंवेदन ) देखता है, इसलिए वह किसी को भी मारना व अधीन करना नहीं चाहता।
शस्त्रीकरण (पाप) से वे ही बच सकते हैं, जो गम्भीरता (अध्यात्मदृष्टि) पूर्वक शस्त्र प्रयोग में अपना अहित देखते हैं२४ ।
जो खेदज्ञ हैं, वे ही अशस्त्र का मर्म जानते हैं, जो अशस्त्र का मर्म जानते हैं, वे ही खेदज्ञ हैं२५। ____ जो दूसरो की आशंका, भय या लाज से शस्त्रीकरण नही करते, वे तत्कालदृष्टि (अन्-अध्यात्म-दृष्टि-वहिर-दृष्टि ) हैं। वे समय आने पर शस्त्री. करण से वच नही सकते२६ । अशस्त्र की उपासना
जो सर्वदा और सर्वथा अशस्त्र है, वही परमात्मा है। अशस्त्रीकरण की और प्रगति ही उसकी उपासना है। आत्माएं अनन्त हैं। वे किसी एक ही विशाल-वृक्ष के अवयव मात्र नहीं हैं। सवकी स्वतन्त्र सत्ता है २७ ।
जो व्यक्ति दूसरी आत्माओं की प्रभु-सत्ता में हस्तक्षेप करते हैं, वे परमात्मा की उपासना नही कर सकते। । भगवान् ने कहा-सर्व-जीव-समता का आचरण ही सत्य है। इसे केन्द्रविन्दु मान चलने वाले ही परमात्मा की उपासना कर सकते हैं | मित्र और शत्रु
भगवान् ने कहा-पुरुप ! बाहर क्या हूंढ़ रहा है ? अन्दर आ और देख तू ही तेरा मित्र है२९ । श्रो पुरुप ! तू ही तेरा मित्र और तू ही तेरा शत्रु है जो किसी का भी अमित्र नहीं, वही अपने आपका मित्र है ३० । जो किसी एक का भी अमित्र है, वह सबका अमित्र है-आत्मा की सर्वसम्र-सत्ता का अमित्र है ।