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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
शस्त्र-प्रयोक्ता __ जो प्रमत्त हैं, वे शस्त्र का प्रयोग करते हैं। जो काम-भोग के अर्थी हैं, वे शस्त्र का प्रयोग करते हैं। भगवान् ने कहा-अपने या पर के लिए या विना प्रयोजन ही जो शस्त्र का प्रयोग करते हैं, वे विपदा के भँवर में फँस जाते हैं।६। अविवेक और विवेक
भगवान् ने कहा-शस्त्रीकरण अविवेक (अपरिज्ञा) है। इसके कटु परिणामो को जान कर जो इसे छोड़ देता है, वह विवेक (परिज्ञा ) हैं१७ । निःशस्त्रीकरण का अधिकारी
भगवान् ने कहा-गौतम ! मैं पहले कहाँ था ? कहाँ से आया हूँ ? पहले कौन था आगे क्या होऊँगा ? यह संज्ञान जिसे नही होता, वह अनात्मवादी है। ___अनात्मवादी निःशस्त्रीकरण नहीं कर सकता ८ ! इन दिशाओ और अनुदिशाओ में सञ्चारी तत्त्व जो है, वह मैं ही हूँ (सोऽहम् ), इसे जाननेवाला आत्मा को जानता है, लोक को जानता है, कर्म को जानता है, क्रिया को जानता है।
आत्मा को जानने वाला ही निःशस्त्रीकरण कर सकता है१९ । शस्त्र प्रयोग से दूर
जो अपनी पीर जानता है, वही दूसरो की पीर जान सकता है २० । जो दूसरो की पीर जानता है, वही अपनी पीर जान सकता है।
सुख दुःख की अनुभूति व्यक्ति-व्यक्ति की अपनी होती है। आत्म-तुला की यथार्थ अनुभूति हुए विना प्रत्येक जीव सभी जीवो के 'शस्त्र' (हिंसक ) होते हैं२२ ।
'अशस्त्र' (अहिंसक ) वे ही हो सकते हैं, जिन्हे साम्य और अभेद में कोई भेद न जान पड़े। भगवान्ने अहिंसा के उच्च-शिखर से पुकारा - पुरुष ! देख-"जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है, जिस पर तू शासन करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू कष्ट देना चाहता है, वह तू ही है, जिसे तू अधीन करना चाहता है, वह तू ही है जिसे तू सताना चाहता है, वह तू ही