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जैन दर्शन में आचार मीमांसा अशुद्ध वस्तु का परिहार, कायोत्सर्ग, तपस्या-ये सब पूर्वकृत पाप की विशुद्धि के हेतु हैं५८ ।
भगवान् ने कहा-गौतम ! विनय के सात प्रकार हैं-(१) ज्ञान का विनय, (२) श्रद्धा का विनय, (३) चारित्र का विनय और (४) मनविनय।
अप्रशस्त मन-विनय के बारह प्रकार हैं :
(१) सावा, (२) सक्रिय, (३) कर्कश, (४) कटुक, (५) निष्ठुर, (६) परुष, (७) अास्रवकर, (८) छेदकर, (६ ) भेदकर, (१०) परिताप कर, (११) उपद्रव कर और (१२) जीव-घातक । इन्हे रोकना चाहिए। _प्रशस्त मन के बारह प्रकार इनके विपरीत हैं। इनका प्रयोग करना चाहिए।
(५) वचन-विनय-मन की भांति अप्रशस्त और प्रशस्त वचन के भी बारह-बारह प्रकार हैं।
(६) काय-विनय-अप्रशस्त-काय-विनय-अनायुक्त (असावधान) वृत्ति से चलना, खड़ा रहना, बैठना, सोना, लांघना प्रलांघना, सब इन्द्रिय और शरीर का प्रयोग करना। यह साधक के लिए वर्जित है। प्रशस्त-काय विनय-आयुक्त ( सावधान ) वृत्ति से चलना, यावत् शरीर प्रयोग करनायह साधक के लिए प्रयुज्यमान है।
(७) लोकोपचार-विनय के सात प्रकार हैं :
(१) बड़ों की इच्छा का सम्मान करना, (२) बड़ो का अनुगमन करना, (३) कार्य करना, (४) कृतज्ञ बने रहना, (५) गुरु के चिन्तन की गवेषणा करना, (६) देश-काल का ज्ञान करना और (७) सर्वथा अनुकूल रहना।
गौतम-भगवन् ! वैयावृत्य क्या है ?
भगवान् गौतम ! वैयावृत्य का अर्थ है-सेवा करना, संयम को अवलम्बन देना।
साधक के लिए वैयावृत्य के योग्य दश श्रेणी के व्यक्ति हैं :(१) प्राचार्य, (२) उपाध्याय, (३) शैक्ष-नयासाधक, (४) रोगी,