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भौर अज्ञान दूर होता है। अनन्तर सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का परिग्रहण होता है।
सम्यग्दर्शन का तात्पर्य है आत्मविश्वास अथवा आत्मप्रतीति । जीवादि सप्त तत्वों के अस्तित्व पर विश्वास का होना एक आवश्यक तथ्य है। सत्कर्म सुख के कारण है और असत्कर्म दुःख के कारण है। इन कर्मों का कर्ता और भोक्ता जीव स्वयं है, कोई ईश्वरादिक नहीं। बिना पुरुषार्थ के किसी भी वस्तु की प्राप्ति नहीं होती। इन विचारों से आत्मविश्वास जाग्रत होता है। आत्मशक्ति का यह जागरण कभी परोपदेश से होता है जिसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहा गया है और कभी स्वतः होता है जिसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहा गया है। तरतमता की दृष्टि से ही इसके तीन भेद किये गये है- औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक।
जीव का ज्ञान दर्शन स्वभाव है इसलिए जीव गुणी और ज्ञान-दर्शन गुण हैं । गुण और गुणी को सर्वथा विमुक्त नहीं किया जा सकता । आत्मा जबतक कर्मों से बंधा रहता है, उसका ज्ञान-दर्शन स्वभाव उद्घाटित नहीं हो पाता और जैसे ही वह कर्म-मल से विमुक्त हो जाता है, उसका ज्ञान-दर्शन तद्रूप हो जाता है। व्यावहारिक क्षेत्र में इसी को हम आत्मविश्वास कह सकते है।
जीव के सुखदु:ख के कारण उसके स्वयं के कर्म होते है । आसक्ति पूर्वक विषय-ग्रहण से राग-द्वेषादि विकार भाव उत्पन्न होते है। इन विकार भावों की उत्पत्ति में अज्ञानता, तृष्णा, लोभ, मोह आदि भाव है। ये विकार मन, वचन, काय रूप त्रियोग के निमित्त से आत्मा की ओर आकृष्ट होते है जिसके कारण वह आत्मशक्ति को नहीं पहिचान पाता और यह भी नहीं समझ पाता कि अपना क्या है और दूसरे का क्या है । इसी को स्व-पर विज्ञान अथवा भेदविज्ञान कहा जाता है।
जैनधर्म के अनुसार हम संसारी जो कार्य करते है उन्हें स्थूल रूप से चार भागों में विभाजित किया जाता है
१. ईर्ष्यावश ज्ञानदान नहीं देना, ज्ञान के उपकरणों को छिपा देना, शान प्राप्ति में विघ्न उपस्थित करना, ज्ञानी की निन्दा करना आदि ऐसे कार्य हैं जिनसे मात्मा का ज्ञानगुण अभिव्यक्त नहीं हो पाता। इसको ज्ञानावरणीय कर्म कहा गया है। ___२. पदार्थ दर्शन अथवा आत्मदर्शन को रोकना। पदार्थ दर्शन न कराने में निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि आदि मूल कारण है। इसे दर्शनावरणीय कर्म कहा गया है।