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प्रयोग हुआ है । खजुराहो के समीप ही षष्टाई नामक एक बार जैन मंदिर है वो लगभग इसी समय का बना हुआ है।
घण्टाई मन्दिर का आकार विशाल और शैली अलंकरण प्रधान है। वर्तमान में अर्धमण्डप और मण्डप ही शेष हैं। द्वार मार्ग के पीछे अर्धस्तम्भ है। द्वार मार्ग की सात साखायें है, नवग्रहों, सोलहस्वप्नों तथा तीर्थकरों और शासन देवी-देवताओं का अंकन है । खजुराहो का पाश्र्वनाथ मन्दिर भी यहाँ उल्लेखनीय है जो इसी काल का है।
मालवा का ऊन प्रदेश परमार शैली के लिए प्रसिद्ध रहा। १२ वी शताब्दी का चालुक्य शैली का यहां एक मंदिर मिलता है जिसे कुमारपाल चरण ने बनवाया था। यहीं के ग्वालेश्वर मंदिर में परमार तथा चालुक्य शैलियों का उपयोग किया गया है।
इसके बाद सोनागिरि, द्रोणगिरि, रेशन्दिगिरि पावागिरि, ग्वालियर, मादि स्थानों में जैन मंदिरों का निर्माण हुआ। इस निर्माण में काले ग्रेनाइट पाषाण तथा बलुए पाषाण का उपयोग हुआ है। ग्वालियर के तोमर-बंशीय राजाओं ने जन स्थापत्य को प्रश्रय दिया। नरवर, तुबेन, चंदेरी, भानपुरा, मक्सी, धार, माण्डु, वडवानी, अलीराजपुर, विदिशा, समसगढ, देवगढ, पजनारी, थुबोन, कुण्डलपुर, बीना-बारहा, अहार, पपोरा, बानपुर, अजयगढ, सेमरखेडी आदि स्थानों पर भी इस काल की कला का दर्शन होता है।'
उत्तर भारत :
उत्तर भारत में मथुरा को छोड़कर अन्यत्र प्राचीनकालीन जैन मन्दिर नहीं मिलते। वहाँ ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी तक जैन कला का कुछ और भी विकास हुआ। उत्तर भारत में उसे फलने-फूलने का भी मौका मिला। इस काल में मंदिर, मानस्तम्भ निषिधिकायें (स्मारक स्तम्भ) मठ, सहस्रकूट, आदि की रचनाये हई। मंदिरों का निर्माण सामान्यतः वैदिक परम्परा से भिन्न नहीं था। इस समय प्रतिहार और गुर्जर शैली प्रसिद्ध रही। मूल राजस्थानी शैली में अलंकारिता
और कलात्मकता अधिक है। चाहमानों की नादोल शाखा में जैनधर्म बहुत लोकप्रिय रहा। उन्होंने अनेक जैन मंदिरों का निर्माण भी कराया। इन मंदिरों की विशेषतायें है-पंच-रप शिखर युक्त गर्भगृह, बार मंडप,स्तम्भमय अन्तःभाग तपा प्रवेशमंडप। ये विशेषतायें ओसिया के महावीर मंदिर में देखी जा सकती हैं।
१. मध्य भारत, श्रीकृष्ण देव तवा एष्ण दत्त वाजपेयी ।