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'कूर्म पुराण', 'मार्कन्डेय पुराण तथा 'वायु पुराण' में भी उनके महनीय व्यक्तित्व को उपस्थित किया गया है। अनेक सन्दर्भ में शिव और ऋषभ में साम्य भी देखा जाता है ।
बौद्ध साहित्य में भी ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है । धम्मपद में उन्हें "पबरवीर" कहा गया है । (उसभं पवरं वीरं, ४२२ ) । 'मञ्जुश्री मूलकल्प' उनको निर्ग्रन्थ तीर्थङ्कर और आप्तदेव के रूप में उल्लेख करता है ।' 'धर्मोत्तर प्रदीप (पु.२८६) में भी उनका स्मरण किया गया है ।
इस प्रकार ऋषभदेव का प्राचीन इतिहास जैन, वैदिक और बौद्ध, तीनों साहित्यों में मिलता है । कहीं कहीं तो उनकी और शिव की एक रूपता के भी दर्शन होते हैं । इसे हम उत्तर काल की समन्वयावस्था का प्रतीक मानते हैं ।
अन्य तीर्थकर :
यहां यह उल्लेखनीय है कि जैनों के चौबीस तीर्थंकरों का अनुकरण कर वैदिक परम्परा ने चौबीस अवतारों की कल्पना की और बौद्ध परम्परा ने चौबीस बुद्ध बना लिए । अवतारों और बुद्धों की संख्या में यथासमय वृद्धि भी होती रही पर जैनों के तीर्थंकर चौबीस से पच्चीस नहीं हुए और न चौबीस से तेवीस । इससे जैन परम्परा की वास्तविकता और मौलिकता का मामास
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होता है ।
बौद्ध परम्परा में ऋषभदेव के साथ ही अन्य तीर्थंकरों का भी उल्लेख हुआ है । उसने उन तीर्थंकरों के नामों का उपयोग अपने बुद्धों, प्रत्येक बुद्धों, और बोधिसत्वों के नामों की अवधारणा में किया है । उदाहरणतः द्वितीय तीर्थंकर 'अजित' का नाम एक पच्चेक बुद्ध को दिया गया है जो इक्यान वें कल्पों पूर्व हुए थे । वैपुल्य पर्वत का नाम सुपार्श्व के आधार पर रखा गया है । राजगृह निवासी कस्सप बुद्ध के समय 'सुप्पिय' (सुपार्श्व के अनुयायी, कहे जाते थे । सुपार्श्व जैन परम्परा के सप्तम तीर्थंकर हैं ।
षष्ठ तीर्थकर 'पद्म' का नाम आठवें बुद्ध के लिए दिया गया है।' यही नाम एक प्रत्येक बुद्ध का भी है जिसे अनुपम थेर ने अकुलिपुष्प समर्पित किये
१. ४५ - २७, गणपतिशास्त्री द्वारा सम्पादित, त्रिवेन्द्रम, १९-२० .
२. बेरीगाया, अपदान १, पु. ६८.
३. संयुत्तनिकाय, भाग-२, पृ. १९२.
३. कातक, भाग १, पु. ३६.