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________________ ३३९ दूरदशिता के फलस्वरूप उसके अस्तित्व को कोई भी शक्ति समाप्त नहीं कर सकी। आज भी वह हर क्षेत्र में अपना प्रमुख स्थान बनाये हुए है। विदेशों में जनधर्म : जैनधर्म ने साधारणतः अपनी जन्मभूमि की सीमा का उल्लंघन नहीं किया। उसका प्रसार उतना अधिक नहीं हो पाया जितना बौद्धधर्म का हमा इसका मुख्य कारण यह था कि उसमें आचार शैथिल्य अधिक नहीं आया। आचार के क्षेत्र में दृढता होने के कारण वह विदेशी संस्कृति को अन्तर्भूत नहीं कर सका। इसके बावजूद किसी सीमा तक वह विदेशों में गया है और वहाँ की संस्कृति को प्रभावित भी किया है। भारत की भौगोलिक सीमा बदलती रही है। प्राचीन काल में अफगानिस्तान, गांधार (कन्दहार तथा ईरान का पूर्वी भाग), आसाम, नेपाल, भूटान, तिब्बत कश्मीर, वर्मा, श्रीलंका, आदि देशों को भारत के ही अन्तर्गत माना जाता था। जावा, सुमात्रा, बाली, मलाया, स्याम आदि देश भारत के उपनिवेश जैसे थे। चीन, अरब, मिश्र, यूनान आदि कुछ ऐसे देश थे जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा था। विदेशों से थल और जल मार्गों द्वारा व्यापार हुआ करता था। इसलिए आवागमन के साथ सांस्कृतिक तत्वों का भी आना-जाना लगा रहता था। यही कारण है कि आज की सुदूर पूर्ववर्ती देशों और मध्य ऐशिआ के विभिन्न भागों में भारतीय संस्कृति के विविध रूपों का अस्तित्व मिलता है। जैन संस्कृति का रूप भी यहां उपलब्ध है। श्रीलंका : जैनधर्म श्रीलंका में लगभग आठवीं शती ई. पू. में पहुंच चुका था। उस समय उसे रत्नद्वीप, सिंहद्वीप अथवा सिंहलद्वीप कहा जाता था। दक्षिण की विद्याधर संस्कृति का अस्तित्व सिंहलद्वीप के ही पालि ग्रन्थ 'महावंश में मिलता है। वहां कहा गया है। कि विजय और उसके अनुयायियों को श्रीलंका में यक्ष और यक्षणियों के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा था। बाद में पाण्डकाभय (४३८-३६८ ई. पू.) उनका सहयोग लेने में सफल हो गया। उसने अनुराधापुर के आसपास जोतिय निग्गंठ के लिए एक बिहार भी बनाया। वहीं १. बीलंका वर्तमान सीलोन है या श्रीलंका कहीं मध्यप्रदेश अधवा प्रयाग के बासपास पी, इस विषय में विद्वानों में मतमेव है।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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