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जिनप्रभसरि (१३०२ ई.) का विविध तीर्थकल्प और राजशेखर का प्रबन्धकोश भी इसी समय की रचनायें हैं। सवस्त्र भट्टारकप्रथा का प्रारम्भ भी इसी समय हुआ है।
अकबर (१५५६-१६०५ ई.) ने भी जैनधर्म के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार किया। उसने जैन तीर्थ स्थानों पर पशुबध को बन्द किया। अनेक जैन मन्दिर बनवाये। उसके आग्रह पर राजमल्ल ने जम्बूस्वामी चरित संस्कृत में और साहु टोडरने उसे हिन्दी में लिखा । मुगावती चौपाई, परमार्थी दोहाशतक, पंचाध्यायी, लाटी संहिता, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, पिङ्गलशास्त्र, यशोधररास, हनमन्तचरित, धर्मपरीक्षारास, शीलरास, जम्बूचरित, झानसूर्योदय, अज्ञानसुन्दरीरास, श्रीपालचरित, आदि ग्रन्थ इस समय के प्रमुख साहित्यिक मणि कहे जा सकते हैं।
जहांगीर (१६०५-१६२७ ई.) ने जैन तीर्थक्षेत्र शत्रुजय का संरक्षण किया और जिनप्रभमूरि का सम्मान किया। भविष्य दत्तचरित, भक्तामरकथा, सीताचरित, सुदर्शनचरित, यशोधर, चरित, भगवतीगीता, रावण मन्दोदरी संवाद आदि हिन्दी के जैन ग्रन्थ इसी काल में लिखे गये हैं। शाहजहां (१६२८१६५८ ई.) ने जैन तीर्थोकी रक्षा के लिए योगदान देना पूर्ववत् जारी रखा। बनारसीदास (१५८६-१६४३ ई.) शाहजहां के घनिष्ठ मित्र थे। उनके अतिरिक्त शालिभद्र, हरिकृष्ण, जगभूषण, हेमराज, लूनसार, पृथ्वीपाल, वीरदास, रायरछ, मनोहरलाल, रायचन्द्र, भगवतीदास, आनन्दघन, यशोविजय, विनयविजय, लक्ष्मीचन्द्र, देवब्रह्मचारी, जगतराय, शिरोमणिदास आदि जैन विद्वान है जिन्होने संस्कृत और हिन्दी के ग्रन्थ भण्डारों को अपनी लेखनी से समृद्ध किया है।
भारत में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का यह एक अत्यन्त संक्षिप्त विवरण है। उसमें जैनधर्म के उत्थान और पतन की कहानी भी देखी जा सकती है। उसे बौद्ध और वैदिक तथा मुसलिम आदि अन्य सम्प्रदायों के साम्प्रदायिक कोप का भी भाजन होना पड़ा, फिर भी वह बौद्धधर्म के समान लुप्तप्राय नहीं हो सका। बल्कि राष्ट्रीय चेतना के विकास में सतत योगदान देता रहा। मन्दिरों और पुस्तकालयों के नष्ट कर दिये जाने से उसके विकास में बाधायें अवश्य पायी फिर भी अपनी चारित्रिक निष्ठा और संयमशीलता तथा
१. देखिये, भारतीय इतिहास : एक दृष्टि - गें. ज्योतिप्रसाद मैन, भारतीय मानपीठ,
काशी.