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नागरशैली आदि विशेषतायें इसी समय हुई। पादलिप्तसूरि आदि अनेक जैना चार्यों का यह कार्य क्षेत्र रहा है।
गुप्तकाल (६.४०० से ७०० तक) :
गुप्तवंश प्रायः वैदिक संस्कृति का अनुयायी रहा है। परन्तु वह अन्य धर्मावलम्बियों के सांस्कृतिक और साहित्यिक केन्द्रों को विकसित करने में कमी पीछे नहीं रहा। हरिगुप्त, सिद्धसेन, हरिषेण, रविकीति, पूज्यपाद, पात्रकेशरी, उद्योतनसूरि आदि जैनाचार्य इसी समय हुए हैं। कर्णाटक, मथुरा, हस्तिनापुर, सौराष्ट्र, अवन्ती, अहिच्छत्र, भिन्नमाल, कौशाम्बी, देवगढ, विदिशा, श्रावस्ती, वाराणसी, वैशाली, पाटलिपुत्र, राजगृह, चम्पा, आदि नगरियां जनधर्म के केन्द्र के रूप में मान्य थीं। श्वेताम्बर साहित्य का लेखन भी इसी काल में प्रारम्भ हुआ। रामगु त और कुमार गुप्त के काल में अनेक जैन मूर्तियों और मन्दिरों की प्रतिष्ठायें हुई। रामगुप्त के क्तित्त्व को स्पष्टकर उसे ऐतिहासिक रूप देने में विदिशा में प्राप्त जैन मूर्तियों का योगदान अविस्मणीय है।
गुप्तोत्तरकाल (८ से १० वीं शती तक) :
प्रतिहार वंश में कक्कूक, वत्सराज और महेन्द्रपाल जैन राजा थे। कन्नौज उनकी राजधानी थी। पुन्नाटसंघीय जिनसेन का हरिवंशपुराण, उद्योतन सूरि की कुवलयमाला और सोमदेव का यशस्तिलकचम्मू आदि ग्रन्थों की रचना इसी समय हुई । देवगढ की समृद्ध जैनकला का भी यही काल है।
मालवा के परमारों (१० वीं से १३ वीं शती तक) की राजधानी धारा नगरी थी जो सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विख्यात है। कहा जाता है कि मुंज, नवसाहसांक और भोज जैनधर्म के अनुयायी रहे हैं। धनपाल, अमितगति, माणिक्यनन्दि, नयनंदि, प्रभाचन्द, आशाधर, धनञ्जय, दामोदर आदि जैनाचार्यों ने सरस्वती के क्षेत्र में इसी समय योगदान दिया है। राजपूताना के परमारों का भी यही कार्यकाल रहा है। उनकी राजधानी चित्तोड़ थी। कालकाचार्य और हरिभद्रसूरि यहाँ के प्रधान आचार्य थे। मेवाड़ के मन्दिर कला की दृष्टि से प्रसिद्ध है ही। कहा जाता है कि विक्रमादित्य जैन था और वह सिद्धसेन दिवाकर का शिष्य था।
चन्देल वंश (९ वीं से १३ वीं शती तक) काल भी जैन संस्कृति के विकास की दृष्टि से उल्लेखनीय रहा है। खजुराहो, देवगढ़, महोवा, मदनपुरा, चंदेरी, महार, पपोरा, ग्वालियर आदि कला केन्द्र इसी काल के हैं। कच्छपघट और